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________________ ८१८ ] [० रतनचन्द जैन मुस्तार कर्मों के क्षय की परिसमाप्ति होती है, यह जाना जाता है। उत्तरोत्तर गुणों के प्रकर्ष का ख्यापन करने के लिये सामायिक, छेदोपस्थापना इत्यादि क्रम से इनका नाम निर्देश किया है। सर्वार्थसिद्धि प्रथम अध्याय प्रथमसूत्र में जो 'संसारकारणं निवृत्तिप्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादाननिमित्त. क्रियोपरमः सम्यक्चारित्रम् ।' यह वाक्य दिया है उसका अर्थ इसप्रकार है-"जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत हैं उस ज्ञानी के कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं।" __'संसार के कारणों को दूर करने के लिये', इस पद में "संसार का कारण क्या है", यह विचारणीय है। संसार का कारण मात्र योग नहीं है, जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में कहा है पुण्णफला अरहंता तेसि किरिया पुणो हि मोदइया । मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग ति मवा ॥४५॥ अर्थात-पुण्य का फल अर्हन्त पद है और उन अर्हन्तों की काय तथा वचन की क्रिया ( योग ) निश्चय से कर्मोदय के निमित्त से है, परन्तु वह क्रिया मोह, राग, द्वेषादिभावों से रहित है। इसलिये वह क्रिया ( योग ) बन्ध का अकारण होने से और मोक्ष का कारण होने से, क्षायिकी ही है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी इसकी टीका में कहा है "अहंन्तः खलु सकलसम्यकपरिपक्वपुण्यकल्पपावपफला एवं भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तबुदयानुभाव सभावितात्मसंभूतितया किलोवयित्येव । अथैवंभूतापि सा समस्तमहामूर्धाभिषिक्त-स्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये संभूतत्वान्मोहरागद्वषरूपाणामुपरजकानामभावाच्चतन्यविकारकारणतामनासदयन्ती नित्यमौदयिकी कायंभूतस्य बन्धस्याकारण-भूततया कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव ।" "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ॥८॥२॥" मोक्षशास्त्र अर्थ-कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बन्ध है। इससे स्पष्ट है कि राग, द्वेष, मोहरहित क्रिया अथवा योग बन्ध का कारण नहीं है । बन्ध का कारण अथवा संसार का कारण राग, द्वेष, मोह है, उस संसार के कारण राग, द्वेष को दूर करने के लिये साधु चारित्र अंगीकार करते हैं। "रागद्वेषनिवृत्य, चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥"-रत्नकरण्ड भावकाचार अर्थात-रागद्वेष को दूर करने के लिये सत्पुरुष चारित्र को अंगीकार करते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सर्वार्थसिद्धि में राग, द्वेषसहित कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहा है, न कि क्रिया मात्र के त्याग को। राग, द्वेष के निमित्तभूत हिंसा, प्रसत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह का त्याग छठेगुणस्थान में हो जाता है अतः छठेगुणस्थान से चारित्र अर्थात् संयम प्रारम्भ हो जाता है। कहा भी है "संयमानुवावेन संयताः प्रमत्तादयोऽयोग-केवल्यन्ताः ।" सर्वार्थ सिद्धि १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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