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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८१७ रत्नत्रय की पूर्णता चौदहवेंगुणस्थान के अन्तिमसमय में होती है, क्योंकि उसके अनन्तरसमय में द्रव्यमोक्ष हो जाता है।' -जे. ग.................... (१) ग्यारहवें प्रादि गुणस्थानों में परमउत्कृष्ट चारित्र (२) मोह-नाश का गुणस्थान [ दसवाँ अथवा बारहवाँ ] (३) केवली के उपचार से ध्यान (४) साक्षात् मोक्ष का कारण [ सम्यक् चारित्र ] शंका-सर्वार्थसिद्धि प्रथम अध्याय प्रथम सूत्र को टोका में सम्यक्चारित्र का लक्षण निम्नप्रकार लिखा है-'संसारकारणनिवृत्तिप्रत्यागूणस्य ज्ञानवतः कर्मावाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यकचारित्रम् ।' क्या यह लक्षण मात्र चौदहवेंगुणस्थान के चारित्र में घटित है या उससे पूर्व के चारित्र में भी घटित होता है ? एक विद्वानू का ऐसा विचार है कि "योग भी बन्धका कारण है। योग से तेरहवेंगणस्थान तक आस्रव होता है। इसलिये योग के अभा में चौदहवेंगुणस्थान में ही कर्मादाननिमित्तक्रियोपरम होने से चारित्र होता है" क्या यह विचार ठीक है ? समाधान - श्री उमास्वामी तथा श्री पूज्यपाद आचार्य का यह अभिप्राय नहीं था कि सम्यक्चारित्र चौदहवेंगुणस्थान में ही होता है, क्योंकि चारित्र के पांच भेद बतलाये गये हैं, जिनमें से सामायिक, छेदोपस्थापना. चारित्र छठेगणस्थान से नवेंगुणस्थानतक होता है, सूक्ष्मसाम्परायचारित्र दसवेंगुणस्थान में होता है और यथाख्यातचारित्र ग्यारहवेंगुणस्थान से चौदहवेंगुणस्थानतक होता है। "सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय यथाख्यातमिति चारित्रम् ॥९॥१८॥" अर्थ-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात यह पांच प्रकार का चारित्र है। इस सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में श्री पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है "अतिसूक्ष्मकषायत्वात्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रम् । मोहनीयस्य निरवशेषस्योपशमातुक्षयाच्च आत्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं ययाख्यातचारित्रमित्याख्यायते । इति शब्दः परिसमाप्तौ द्रष्टव्यः। ततो यथाख्यातवारित्रात्सकलकर्मक्षयः परिसमाप्तिर्भवतीति ज्ञाप्यते । सामायिकादीनामानुपूर्व्यवचनमुत्तरोत्तर-गुण-प्रकर्षख्यापनार्थ क्रियते ।" अर्थ-जिसचारित्र में कषाय अतिसूक्ष्म हो जाती हैं वह सूक्ष्मसाम्परायचारित्र है। समस्त मोहनीयकर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्थारूप जो चारित्र होता है वह अथाख्यातचारित्र है। सूत्र में आया हुआ 'इति' शब्द परिसमाप्ति अर्थ में जानना चाहिये । इसलिये इससे यथाख्यातचारित्र से समस्त १. तेरहवेंगुणस्थान में योगलय का व्यापार घारित में मल पैदा करता है। अयोगकेवली के भी घरमसमय के सिवा (अन्यसमय में) अघातिकमाँ का ती उदय चारिख में मल उत्पन्न करता है। अत: चरम समयवर्ती अयोगकेवली के मंद उदय होनेपर चारिख में दोष का अभाव होता है और इस कारण द्रव्यमोक्ष हो जाता है। [वृ. इ. सं० गाथा 13 टीका] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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