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________________ ७६० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। है. क्योंकि, उस 'रात्रिभोजनविरमण' व्रत का भावनामों में अन्तर्भाव हो जाता है। आगे भहिंसाव्रत की भावनाएं कहेंगे उनमें एक आलोकितपानभोजन नाम की भावना है उसमें रात्रिभोजनविरमरण नामक व्रत का अन्तर्भाव हो जाता है।' इससे स्पष्ट हो जाता है कि 'ननु च' प्रादि शब्दों से सर्वार्थसिद्धि टीकाकार का प्रयोजन महाव्रतीसाधु के अणुव्रत कहने का नहीं है।' साधु किसी भी सवारी का उपयोग नहीं कर सकता शंका-क्या मुनि चेतन या अचेतन सवारी का अपने आवागमन के लिये उपयोग कर सकता है ? समाधान-मुनि को जलयान अथवा अन्य किसी भी चेतन या अचेतन सवारी को अपने प्रावागमन के लिए उपयोग में नहीं लाना चाहिये। मूलाचार प्रदीप (सकलकीति आचार्य); दूसरा अधिकार श्लोक १५ पृ.३ पर ईर्यासमिति के प्रकरण में लिखा है काष्ठं पाषाणमन्यद्वा ज्ञात्वा चलाचलं बुधः । तेषु पादं विधायाशु न गन्तव्यं दयोद्यतैः॥ अर्थ-दया धारण करने वाले बुद्धिमानों को काष्ठ, पाषाण प्रादि को चलाचल जान लेने पर, उनमें पैर रखकर गमन नहीं करना चाहिए। किसी भी प्रकार की गाड़ी आदि में चलने से ईर्यासमिति का पालन नहीं हो सकता तथा अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है, अथवा नष्ट हो जाता है। -पलाधार ज. ला. जैन, भीण्डर साधु जान बूझकर व्रतों के प्रतिकूल परिस्थितियाँ न जुटावे शंका-कोई व्रत लेने या कोई त्याग किये पीछे उस व्रत या त्याग की परीक्षा के लिये कुछ प्रतिकूल परिस्थितियाँ जुटानी चाहिए क्या? जिस प्रकार गांधीजी ने किया कि ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ता से आश्वस्त होकर अपनी जांच के लिये एक बार वे युवतियों के साथ अकेले सोये? या और किसी प्रकार भी? इसी प्रकार कड़ी धूप में तप करना, श्मसान में मुनित्व का अभ्यास करने हेतु श्रावक द्वारा कायोत्सर्ग करना आदि तथा मुनि द्वारा वर्षाऋतु में पेड़ के नीचे, गर्मियों में पहाड़ पर और शीत में नदी के किनारों पर ध्यान करना अपने व्रत की दृढ़ता जांचने के लिये समुचित है या नहीं? और क्या यह करना प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करना नहीं है अपनी दृढ़ता जांचने के लिये ? १. इस विषय में अनगारधर्मामृत ४/१५० टीका में लिखा है। जिसका भाव यह है कि राति में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना छठा अणुव्रत है। उसे अणुव्रत इसलिये कहा है कि रात्रि में ही भोजन का त्याग बताया है, दिन में तो यथासमय भोजन करने की छूट है अत: आहार का त्याग केवल शति में ही होने से यह काल की अपेक्षा अणु ( लघुव्रत) हैं। इन्हीं पण्डित आशाधरजी ने भगवती आराधना की टीका में भी आश्वास. गा० ११-५-८६ में लिखा है - इस व्रत की अणु संज्ञा दिन में भोजन करने की अपेक्षा से हैं। तथा त्याग मात्र राति में भोजन करने का ही है। इस कालिक अपूर्णता की दृष्टि से यह अणु-लघु व्रत है। यही छठे अणवत का रहस्य हैं। अण शब्द यहां काल कृत अल्पता से लघु-छोटे के अर्थ में प्रयक्त है। यह एक देश त्याग से श्रावको और सर्वदेश त्याग से मुनियों; दोनों के होता है। -सं0-विशेष के लिए देखिये जैन निबंधरत्नावली पृ. २०५-२१७ ले० पण्डित मिलापचन्द्र रतनलाल कटारिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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