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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७८३ 'भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ णाणिस्स । तं अप्पसहावठिदे णहुमण्णइ सो दु अण्णाणि ॥ अज्जवितिरयणसुद्धा अप्पाज्झाऊण लहइ इंदत्तं । लोयंतिदेवत्तं तत्थ चुदा णिवुदि जंति ॥' अर्थ-भरतक्षेत्र विर्ष दुःषमा नामक पंचमकाल में ज्ञानी जीव के धर्मध्यान होय है। जो यह नहीं मानता वह अज्ञानी है। इससमय भी जो रत्नत्रय से शुद्ध जीव प्रात्मा का ध्यान करके इन्द्रपद अथवा लोकान्तिक देवपद को प्राप्त कर वहां से चय नरदेह ग्रहण करके मोक्ष को जाते हैं। इसी प्रकार तत्त्वानुशासनग्रन्थ में भी कहा है 'अवेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोतमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्रावित्तिनाम् ॥५३॥' अर्थ-इस समय में जिनेन्द्र शुक्लध्यान का निषेध करते हैं, किन्तु श्रेणी से पूर्व में होनेबाले धर्मध्यान का अस्तित्व बतलाया है ।।१३।। अतः वर्तमान में भी मूनि हो सकते हैं। -जं. सं. 19-2-59/V) . कीर्तिसागर वीतराग निर्विकल्प समाधि कब ? शंका-वीतरागनिर्विकल्प समाधि किस गुणस्थान से किस गुणस्थान में होती है ? समाधान-वीतराग निर्विकल्प समाधि श्रेणी से पूर्व नहीं होती है। श्री वीरनन्दि आचार्य के शिष्य श्री पग्रनन्दि आचार्य ने कहा भी है "साम्यस्वास्थ्यसमाधिश्चयोगश्चेतोनिरोधनं ।। शुद्धोपयोग इत्येते, भवन्त्येकार्थवाचकाः ।।" षट्प्राभृत संग्रह पृ०८ अर्थ-साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध, शुद्धोपयोग ये सब एकार्थवाची हैं। प्रवचनसार ७की टीका में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने “साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोह. भोमाभावावस्यन्तनिविकारो जीवस्य परिणामः ।" इस वाक्य द्वारा यह बतलाया है कि दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से होनेवाले मोह व क्षोभ, उनसे रहित जीव के जो अत्यन्त निर्विकार परिणाम है वह साम्य है। और गाथा २३० की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने सर्वपरित्याग परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र और शद्रोपयोग को एकार्थवाची कहा है। इससे सिद्ध हो जाता है कि समाधि परमोपेक्षासंयम में होती है। और वह श्रेणी पूर्व नहीं होती है। -जं. ग. 8-2-68/1X/ध. ला. सेठी मुनि वर्षायोग में भी कदाचित् देशान्तर जा सकता है शंका---वर्षायोग के काल में मूनि सीमित क्षेत्र से बाहर किसी भी परिस्थिति में गमन कर सकते हैं या नहीं ? यदि हाँ तो किन परिस्थितियों में व कितने क्षेत्र में ? समाधान-श्री सिवान्तसार संग्रह में इस विषय में निम्न गाथा है द्वादश योजनान्येष वर्षाकालेऽभिगच्छति । यदि संघस्य कार्येण तवा शुद्धो न दुष्यति ॥१०१५९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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