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________________ ७८२ ) [ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार। 'मुनिन काकिना विहरमाणेन गुरुपरिभवच तव्युच्छेदाः तीर्थमलिनत्वजडताः कृता भवन्ति तथा विह्वलत्व. कृशीलत्वपार्श्वस्थत्वानि कृतानीति ।' मुनि के एकल विहार से गुरु की निंदा होती है अर्थात् जिस गुरु ने इनको दीक्षा दी है वह गुरु भी ऐसा ही होगा। श्रु तज्ञान का अध्ययन बंद होने से श्रुत का प्रागम का व्युच्छेद होगा, तीर्थ मलिन होगा अर्थात् जैन मुनि ऐसे ही हुआ करते हैं, इसपकार तीर्थ मलिन होगा तथा जनमुनि मूर्ख, आकुलित, कुशील, पार्श्वस्थ होते हैं, ऐसा लोगों के द्वारा दूषण दिया जायगा। जिससे धर्म की अप्रभावना होगी। श्रुतसंतानविच्छित्ति रनवस्थायमक्षयः । आज्ञाभंगश्च दुष्कोतिस्तीर्थस्य स्याद गुरोरपि ॥२९॥ अग्नितोयगराजीर्णसर्प रादिभिः क्षयः । स्वस्याप्या दिकादेकविहारेनुचिते यतः॥३०॥ आचारसार, अधिकार २ मुनि के अकेले विहार करने से शास्त्रज्ञान की परम्परा का नाश हो जाता है, मुनि अवस्था का नाश होता है, व्रतों का नाश होता है, शास्त्र की आज्ञा का भंग होता है, धर्म की अपकीर्ति होती है, गुरु की अपकीर्ति होती है, अग्नि, जल, विष, अजीणं, सर्प और दुष्ट लोगों से तथा और भी ऐसे ही अनेक कारणों से अपना नाश होता है, अथवा प्रार्तध्यान रौद्रध्यान और अशुभ परिणामों से अपना नाश होता है । इसप्रकार अनुचित अकेले विहार करने में इतने दोष उत्पन्न होते हैं । अतएव पंचमकाल में मुनियों को अकेले विहार कभी नहीं करना चाहिये, आर्यिकाओं के लिए तो सर्वकाल एकल विहार का निषेध है। -णे. ग. 13-2-69/VII-IX/ जितेन्द्रकुमार अवधिज्ञानी ऋद्धिधारो साधु का सद्भाव संका-क्या पंचमकाल में भरतक्षेत्र में अवधिज्ञानी या ऋविधारी साधु का सदभाव है ? समाधान-पंचमकाल में भरतक्षेत्र आर्यखण्ड में अवधिज्ञानी व ऋद्धिधारी मनि हो सकते हैं। -जें. ग. 15-2-62/VII/ म. ला. आजकल भी मुनि हो सकते हैं शंका-लोगों का कहना है कि आजकल मुनि होने का समय नहीं है । मुनि पंचमकाल के अन्त तक होंगे यह बात आगम में कही है। कितने ही लोगों का कहना है कि अब जो मुनि होंगे वे सब मिथ्यादृष्टि होंगे। क्या यह सत्य है? समाधान–'आजकल मुनि होने का समय नहीं है', ऐसा कहना उचित नहीं है । आजकल भी जिसके हृदय में वास्तविक वैराग्य है वह मुनि हो सकता है। ऐसा मुनि ही २८ मूलगुणों को यथार्थ पालन करता है। जिन्होंने ख्याति-पूजा लाभ आदि के कारण नग्नवेश धारण किया है वे वास्तविक मुनि नहीं हैं उनसे न तो २८ मूलगण पलते हैं न जैनधर्म की प्रभावना होती है, अपितु अप्रभावना होती है। शान्ति के स्थान पर अशान्ति हो जाती है। अब जो मूनि होंगे वे सब मिथ्यादृष्टि होंगे; ऐसा नियम नहीं है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने मोक्षपाहड़ में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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