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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७५३ श्री वीरसेनाचार्य के इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि धवलग्रंथ में ग्यारहवेंगुणस्थान में शुक्लध्यान बतलाया है और उससे पूर्व धर्मध्यान बतलाया है। -जं. ग. 31-7-67/VII/ जयन्तीप्रसाद (१) केवली के वस्तुत: ध्यान नहीं है (२) तृतीय शुक्लध्यान सयोग केवली गुणस्थान के अन्त में होता है (३) इसके पूर्व केवलो के कोई ध्यान नहीं होता शंका-शुक्लध्यान के चार पाये हैं । जिसमें दूसरा-शुक्लध्यान बारहवें गुणस्यान के अन्त में होता है। तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थान के अंत में होता है । ऐसा आगम में बतलाया है तो तेरहवें के बीच के काल में केवलज्ञानी के कौनसा ध्यान है या ध्यान नहीं है ? समाधान-तीसरा शुक्लध्यान तेरहवेंगुणस्थान के अन्त में होता है, क्योंकि इसमें योग का निरोध किया जाता है। दूसरे शुक्लध्यान का आलम्बन श्रु तज्ञान है इसलिये यह तेरहवेंगुणस्थान में केवलज्ञानी के संभव नहीं है। तेरहवेंगुणस्थान के बीच के कालमें कोई ध्यान नहीं होता है, धवल पु० १३ पृ० ७५ पर कहा भी है-- "बीयरायत्ते संते विखीणकसायज्झाणस्स एयत्तवियकावीचारस्स विणासो दिस्सदि त्ति--चे-ण, आवरणाभावेण असेसदस्वपज्जाएसु अवजुत्तस्स केवलोवजोगस्स एगदश्वम्हि पज्जाए वा अवदाणाभावं दठ्ठण तज्झाणा-भावस्स परुवित्तादो।" अर्थ-इसप्रकार है प्रश्न-वीतरागता के रहते भी क्षीणकषाय में होनेवाले एकत्ववितर्कप्रविचारध्यान का विनाश देखा जाता है। उत्तर-क्योंकि आवरण का अभाव होने से केवलीजिन का उपयोग अशेष द्रव्य-पर्यायों में उपयुक्त होने लगता है। इसलिए एकद्रव्य में या एकपर्याय में प्रवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का प्रभाव कहा है। __"एवम्हि जोगणिरोह-काले सुहमकिरियमप्पडिवादिज्झाणं ज्झायदि त्ति जं भणिदं तण घडदे; केवलिस्स विसईकयासेसवम्वपज्जायस्स सगसम्बद्धाए एगरूवस्स अणिदियस्स एगवत्थुम्हि मणिणिरोहाभावादो। ण च मणिणिरोहेण विणाझाणं संभवदि अण्णस्थ तहाणुवलंभादो ति? ण एस दोसो, एगवत्थ म्हि चिताणिरोहोज्झाणमिदि जदि घेपवि तो होदि दोसो। ण च एवमेत्य घेप्पदि । पुणो एत्थ कधं घेपदि ति भनिदे जोगो उवयारेविता: तिस्से एयग्गेण गिरोहो विणासो जम्मि तं ज्झाणमिदि एस्थ घेतव्वं; तेण ण पुध्वृत्तदो-ससंभवो त्ति । (धवल पु. १३ पृ० ८६ ) अर्थ- इसप्रकार है प्रश्न-इस योगनिरोध के काल में केवलीजिन सूक्ष्म क्रिया-प्रतिपातीध्यान को ध्याते हैं, यह जो कथन किया है वह नहीं बनता, क्योंकि केवलीजिन अशेषद्रव्य-पर्यायों को विषय करते हैं, अपने सबकाल में एकरूप रहते हैं और इन्द्रिय ज्ञान से रहित हैं, अतएव उनका एक वस्तु में मन का निरोध करना उपलब्ध नहीं होता और मन का निरोध किये बिना ध्यान का होना संभव नहीं है। क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है । क्योंकि प्रकृत में एकवस्तु में चिन्ता का निरोध करना ध्यान है, यदि ऐसा ग्रहण किया जाता है तो उक्त दोष आता है। परन्तु यहाँ ऐसा ग्रहण नहीं करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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