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________________ ७५२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । आदि के दो शुक्लध्यान तीन उत्तमसंहननवालों के हो सकते हैं, किन्तु तीसरा शुक्लध्यान तो प्रथम उत्कृष्टसंहनन के उदयवाले जीव के संभव है। अन्तिम चौथा शुक्लध्यान अयोगीजिन के होता है। वहां पर वज्रवृषभनाराचसंहनन का भी उदय नहीं है, क्योंकि वववृषभनाराचसंहनन की उदय-व्युच्छित्ति तेरहवेंगुणस्थान में हो जाती है। -जै. ग. 28-3-63/IX/ ब्र. प्यारेलाल ग्यारहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान होता है शंका-क्या उपशमश्रेणी में शुक्लध्यान होता है ? समाधान-उपशमश्रेणी में पृथक्त्त्ववितर्क नामक प्रथमशुक्लध्यान होता है। श्री पूज्यपाद आचार्य ने पाठवेंगुणस्थान से शुक्लध्यान कहा है, किन्तु श्री वीरसेनाचार्य ने दसवेंगुणस्थानतक धर्मध्यान और ग्यारहवेंगुणस्थान में शुक्लध्यान कहा है। __ "श्रेण्यारोहणात्प्राधियं, घेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते ।" [ सर्वार्थसिद्धि ९/३७ ] अर्थ-श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है और उपशम व क्षपक दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं । "सकसायाकसाय सामिभेदेण दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेओ।" [ धवल पु० १३ पृ० ७५ ] अर्थात-धर्मध्यान सकषाय जीव के होता है और शुक्लध्यान अकषायजीव के होता है। इसप्रकार स्वामी के भेद से इन दोनों ध्यानों का भेद सिद्ध है । "धम्मज्झाणं सकसाएसु चेव होदि त्ति कधं णचदे ? असंजदसम्मादिटि-संजदासजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुष्वसंजदअणियट्टिसंजद-सुहमसांपराइय खवणोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि ति जिणोवएसादो।" [ धवल पु० १३ पृ० ७४ ] अर्थ-धर्मध्यान कषायसहित जीवों के ही होता है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? असंयत-सम्यग्दृष्टि संयतासंयत. प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत क्षपक और उपशामक, अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक, अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक और उपशामक तथा सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों के धर्मध्यान की प्रवृत्ति होती है, ऐसा जिन देव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है। "कुदो एदस्स सुक्कत्तं ? कसायमलाभावादो।" [ धवल पु० १३, पृ० ७७ ] अर्थ-इस ध्यान को शुक्लपना किस कारण से है ? कषायमल का अभाव होने से यह ध्यान शुक्लध्यान है। "अट्ठावीस भेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वुवसमावडाणकलं पुधत्तविदक्कवीचारसुक्कज्झाणं । मोहसव्वुवसमो पुण धम्मज्झाणफलं, सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहमसांपराइयस्स चरमसमए मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो।" [ धवल पु० १३ पृ० ८० ] अर्थ-अट्ठाईसप्रकार के मोहनीय की सर्वोपशमना होने पर उसमें स्थित रखना पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शक्लध्यान का फल है। परन्तु मोह का सर्वोपशम करना धर्मध्यान का फल है, क्योंकि कषायसहित धर्मध्यानी के सक्षमसाम्परायगूणस्थान के अन्तिमसमय में मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना देखी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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