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________________ ७२६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । भावनारूप विकल्प होता है, वह भावना उत्तम है मोक्षमार्ग स्वरूप है, क्योंकि ऐसी सम्यग्दृष्टि संयमी-साधु के ही हो सकती है, उस भावना में सांसारिक विकल्पों से छूट जाने के कारण जो किंचित् आनन्द प्राप्त होता है, वह मांस भक्षी को मांस खाने में तथा शूकर को विष्टा खाने में प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि ये तो विषय-भोग हैं, विषयभोग तो दुःखरूप हैं। विषय-भोगों में मिथ्याष्टि असंयमी ही सुख मानता है। वहाँ वास्तविक सुख नहीं है सूखाभास है। निर्विकल्पसमाधि की भावना के लिये मांस-भक्षण व विष्टाभक्षण जैसी निकृष्टतम उपमा देना, मात्र हीनभावों का प्रदर्शन है। पार्ष वाक्य इसप्रकार हैं। "आर्तरौद्रधर्म्य शुक्लानि ॥२८॥ परे मोक्ष-हेतू ॥२९॥ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचाय धर्म्यम् ॥ ३६॥" [ मोक्षशास्त्र अध्याय . ] "तदेतच्चतुर्विधं ध्यानं हूँ विध्यमश्नुते । कुतः ? प्रशस्ताप्रशस्त भेदात् । अप्रशस्तम-पुण्यास्रवकारणत्वात् । कर्मनिर्दहनसामर्थ्यात्प्रशस्तम् ।।२८॥ परमुत्तरमन्त्यम् । तस्सामीप्याद्धर्म्यमपि परमइत्युपचर्यते । द्विवचन-निर्देशसाम ाद । परे मोक्ष-हेतू इति वचनात्पूर्वे आर्तरौद्र संसार-हेतू इत्युक्तं भवति । कृतः तृतीयस्य साध्यस्याभावात् ॥२९॥ विचयनं विचयो विवेको विचारणेत्यर्थः। मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिसमन्वा. हारोऽपाय-विचयः। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकाल-भवभावप्रत्यय-फलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः। लोकसंस्थान-स्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः ॥३६॥" [ सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ ] आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये ध्यान के चार भेद हैं। यह चारप्रकार का ध्यान दो भागों में विभक्त है, क्योंकि प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से वह दो प्रकार का है। जो अपुण्य (पाप) आस्रव का कारण है वह अप्रशस्त है। जो कर्मों के निर्दहन करने की सामर्थ्य से युक्त है वह प्रशस्त है। इन चारध्यानों में से अन्त के दो यान मोक्ष के कारण हैं। पर, उत्तर और अन्त्य इनका एक अर्थ है । अन्तिम शुक्लध्यान है और उसका समीपवर्ती होने से धर्मध्यान भी पर है ऐसा उपचार किया जाता है, क्योंकि सूत्र में 'परे' यह द्विवचन दिया है, इसलिये उसकी सामर्थ्य से गौण का भी ग्रहण होता है। पर अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ये दोनों मोक्ष के कारण हैं । इस वचन से पहले के दो अर्थात् प्रातं और रौद्र ध्यान संसार के हेतु ( कारण ) हैं, यह तात्पर्य फलित होता है, क्योंकि मोक्ष और संसार के सिवा और कोई तीसरा साध्य नहीं है ॥२६॥ आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनके विषय में विचारणा धर्मध्यान है। विचय, विवेक और विचारणा ये एकार्थवाची नाम हैं। ये संसारी प्राणी मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र से कैसे दूर होंगे, इसप्रकार पूनः पुनः चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्मों का उदय होता है अर्थात् फल का अनुभव होता है। उस फल अनुभव के उपयोग को ले जाना विपाकविचय धर्मध्यान है। लोक के आकार और स्वभाव का निरन्तर चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। 'निविकल्प होते ही ज्ञाता-द्रष्टा हो जाता है' ऐसा विकल्प भी धर्मध्यान है तथा निर्विकल्प अवस्था का कारण है। कारण में कार्य का उपचार करके ज्ञाता-द्रष्टा कहने में कोई बाधा नहीं है। मांसभक्षी जो मांस खाने में सुख मानता है तथा शुकर विष्टा खाने में जो सुख मानता है वह तो रोद्रध्यान है जो अप्रशस्त है, पाप-बध का कारण है, संसारवृद्धि का कारण है। जबकि धर्मध्यान प्रशस्त है, मोक्ष का कारण है। इस शुभोपयोगरूप धर्मध्यान के द्वारा ही मोहनीयकर्म का क्षय होता है। कहा भी है "मोहणीयविणासो पुण धम्मज्माणफलं सुहमसापरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो।" घवल १३/८१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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