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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ७२५ कषाय अथवा राग दो प्रकार का है बुद्धिपूर्वक राम और अबुद्धिपूर्वक राग। इनका लक्षण निम्न प्रकार है "बुद्धिपूर्वकास्ते परिणामा ये मनोद्वारेण बाह्यविषयानालम्ब्य प्रवर्तते, प्रवर्तमानाश्च स्वानुभवगम्याः अनुमानेन परस्यापि गम्या भवंति । अबुद्धिपूर्वकास्तु परिणामा इंद्रियमनोव्यापारमंतरेण केवलमोहोदयनिमित्तास्ते तु स्वानुभवागोचरत्वादबुद्धिपूर्वका इति विशेषः ।" समयसार पृ० २४६ रायचन्द्र ग्रंथमाला । अर्थ-जो परिणाम मन के द्वारा बाह्यविषय का प्रालंबन लेकर प्रवर्तता है वह बुद्धिपूर्वक है, क्योंकि वह स्वानुभवगम्य है और अनुमान से दूसरे भी जान लेते हैं । जो अबुद्धिपूर्वक परिणाम हैं वे इन्द्रिय व मन के व्यापार के बिना केवल मोहनीयकर्म के उदय से होते हैं और स्वानुभवगोचर भी नहीं हैं इसलिये अबुद्धिपूर्वक हैं । जिन आचार्यों ने बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक दोनों प्रकार के कषाय के अभाव में शुक्लध्यान माना है उनके मत के अनुसार तो धर्मध्यान दसवेंगुणस्थान तक है, क्योंकि वहाँ तक ही बंध है। किन्तु जिन आचार्यों ने बुद्धिपूर्वक कषाय के अभाव में जीव को वीतरागी और अबंधक माना है अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कषाय को तथा उससे होने वाले बंध को गौण कर दिया है उन आचार्यों के मतानुसार धर्मध्यान सातवेंगुणस्थान तक है और उपशम तथा क्षपक श्रेणी में शुक्लध्यान है, क्योंकि वहां पर बुद्धिपूर्वक राग का प्रभाव है। श्री पूज्यपाद भाचार्य तथा अन्य आचार्यों ने आठवें आदि गुणस्थानों में भी शुक्लध्यान का कथन किया है। इसप्रकार इन दोनों कथनों में मात्र विवक्षा भेद है । कषाय के अभाव में शुक्लध्यान और कषाय के सद्भाव में धर्मध्यान होता है यह बात दोनों आचार्यों को इष्ट है। कुछ आचार्यों ने बुद्धिपूर्वक कषाय के सद्भाव में धर्मध्यान और बुद्धिपूर्वक कषाय के अभाव में शुक्लध्यान माना है और कुछ प्राचार्यों ने बुद्धि और अबुद्धिपूर्वक दोनों कषाय के अभाव में शुक्लध्यान माना है । गृहस्थ के धर्मध्यान नहीं होता, क्योंकि गृह कार्यों में उसका मन लगा रहता है ( भाव संग्रह गाथा ३५९ व३८३-३८९) किन्तु गृहस्थ के भद्र ध्यान होता है (भाव संग्रह गाथा ३६५)। वास्तव में धर्मध्यान अप्रमत्त के होता है ( हरिवंश पुराण ५६-५१:५२ ) । -जं. ग. 16-9-65/VIII/ अ. पन्नालाल निर्विकल्प समाधि प्राप्ति की भावनारूप विकल्प से नायमान सुख शंका-द्रव्य दृष्टि प्रकाश भाग ३ बोल नं० १११ इसप्रकार है -निविकल्प होते ही ज्ञाता द्रष्टा हो सकता है। ऐसे विकल्प से ही ज्ञाता मानकर जो होने वाला था सो हुवा, ऐसा मानकर समाधान में सुख मानते हैं, ओ तो ( मांस खानेवाले ) मांस खाने में अघोरी और भंड ( शूकर ) विष्टा खाने में, पतंग दीपक में सुख मानते हैं, वैसा ओ सुख है ? निर्विकल्प अनुभव बिना धारणा में ठीक माने ओ तो कल्पना मात्र है, वास्तविक सुख नहीं।" प्रश्न यह है निर्विकल्प समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिये जो भावनारूप विकल्प है, क्या उस भावना में वैसा ही सुख है जैसा कि मांस भक्षीको मांस समाधान-द्रव्यदृष्टि प्रकाश भाग ३ मेरे सामने नहीं है अतः शंकाकार ने जो लिखा है तथा प्रश्न किया है उसके आधार पर समाधान किया जाता है। निर्विकल्पसमाधि अवस्था से पूर्व जो निर्विकल्पसमाधि के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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