SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 735
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६१ समाधान-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच पाप हैं। इन पांच पापों का त्याग अर्थात इन पांच पापों से विरति चारित्र है। असंयतसम्यग्दृष्टि के इन पांच पापों से विरति नहीं है, क्योंकि वह अविरत है। अतः असंयत सम्यग्दृष्टि के पांच पापों का त्याग ( प्रभाव ) नहीं है। हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथनसेवापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ।। ४९ ॥ ( रत्न. श्राव.) पाप स्वरूप हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह से विरक्त होना ( त्याग करना ) सो सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है। असंयतसम्यग्दृष्टि के एक देश या सकलदेश भी इन पांच पापों का त्याग नहीं है, यदि एकदेश त्याग होता तो वह संयमासंयमी हो जाता है। यदि सकलदेश त्याग हो तो सकल संयमी हो जाता है। -जै. ग. 6-12-71/VII/सुलतानसिंह बारह भावना सभी भा सकते हैं शंका-बारह भावना जब तीर्थकर वैराग्य प्राप्त करते हैं तभी भाई जाती है, क्या दूसरा नहीं भा सकता? समाधान-बारह भावनाओं का सम्यग्दृष्टि चितवन कर सकता है। संवर के अनेक कारणों में से बारहभावना भी एक कारण है। कहा भी है-"स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः। ( मोक्षशास्त्र अ० ९, सत्र २) किसी भी आगम में ऐसा कोई नियम नहीं दिया गया कि बारह भावनामों का चितवन मात्र तीर्थंकर ही करते हैं, अन्य नहीं। प्रथमानुयोग में ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि तीथंकरों के अतिरिक्त अन्यों ने बारह भावना का चितवन किया है। -जे.ग.26-9-63/IX/ब्र. पन्नालाल (अ) दर्शनहीन वन्दनीय नहीं (ब) द्रलिंगमुनि का स्वरूप शंका-क्या सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि को नमस्कार करता है ? द्रव्यलिंग मुनि का क्या स्वरूप है ? समाधान-मिथ्यादृष्टि जीव नमस्कार करने योग्य नहीं है। दर्शनपाहुड़ में कहा भी है-- "दसण-हीणो ण वंदिग्वो ॥२॥" अर्थात् ---दर्शन हीन ( मिथ्यादष्टि ) वन्दने योग्य नाहीं है । "जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवमयेण । तेसि पि णस्थि बोहि पावं अणुमोयमाणाणं ॥१३॥ [अ०पा०/व०पा०] अर्थात-जो जानते हए भी लज्जा, भय, गारव करि मिथ्यादृष्टि की विनय आदि करे हैं तिनके भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति नहीं, क्योंकि वे पाप जो मिथ्यात्व ताको अनुमोदना करे हैं। "असंजवं ण वंदे वच्छ विहीणोवि तो ण विज्जो। बोणि वि होंति समाणा एगो विण संजदोहोवि ॥२६॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy