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________________ ६६० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । वीतरागनिर्विकल्पसमाधि से पूर्व जो आहार-विहार धर्मोपदेश आदि क्रिया होती हैं वे मनोव्यापार द्वारा होती हैं तथा स्व और पर दोनों के ज्ञान-गोचर होती हैं अतः बुद्धिपूर्वक हैं । निर्विकल्पसमाधि में जो योगरूप क्रिया होती है वह कर्मोदय जनित होती है तथा स्व व पर के ज्ञानगम्य नहीं होती प्रतः अबुद्धिपूर्वक होती है। वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में पापरूप प्रवृत्ति नहीं होती है अर्थात् हिंसा आदि पापों से निवृत्ति है, अतः उस अवस्था में भी वह महाव्रती है। -जं. ग. 22-1-70/VII/ कपूरचन्द मानधन्द अवती और प्रतिक्रमण शंका-क्या अवती को प्रतिक्रमण करना चाहिए ? समाधान-व्रत में लगे हुए दोषों का पश्चाताप करना प्रतिक्रमण है तथा आगामी काल के लिए दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है । जहाँ पर प्रतिक्रमण होता है वहाँ पर प्रत्याख्यान भी अवश्य होता है, क्योंकि पिछले दोषों का वास्तविक प्रतिक्रमण वहीं पर होता है जहाँ पर साथ-साथ यह दृढ़ त्याग होता है कि आगामी ऐसे दोष लगा अवती के कोई व्रत ही नहीं होते जिसमें दोष लगे और जिनका वह प्रतिक्रमण करे और न अागामी नाव धारण करके पूर्वकृत दोषों को त्यागने के लिए कटिबद्ध है फिर अव्रती के प्रतिक्रमण कैसे सम्भव है ? प्रथम प्रतिमा से व्रत प्रारम्भ हो जाते हैं और वहीं पर प्रतिक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। प्राचार्यों ने भी प्रथम पनिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा तक श्रावकों के लिये और महाव्रतधारी मुनियों के लिए प्रतिक्रमण पाठ रचे हैं, किन्त अवती के लिए किसी भी आचार्य ने प्रतिक्रमण पाठ नहीं रचा। कालदोष से कुछ ऐसे भी जीव उत्पन्न हो गए हैं यामी का भेष धारण करके प्रागमविरुद्ध पुस्तकें रचने लगे हैं और उनको प्रकाशित करके केवल अपने आप ही नहीं, किन्तु अन्य को भी कुगति का पात्र बनाते हैं। –णे. सं. 20-12-56/VI/ क. दे. गया अव्रती सम्यक्त्वी ( मुनि ) के कथंचित् यम-नियम शंका-क्या असंयत सम्यग्दृष्टि के यम नियम होते हैं ? यदि होते हैं तो वह असंयत क्यों ? समाधान-छठे सातवें गुणस्थानवर्ती संयत सम्यग्दृष्टि भावलिंगी मुनि के यदि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यायातावरण चारित्र-मोहनीय प्रकृतियों का उदय आजाय तो वह छठे सातवें गुणस्थान से गिर कर चतुर्थ गुणस्थान में प्राजाता है और असंयत सम्यग्दृष्टि हो जाता है । उस द्रव्यलिंगी मुनि के यम नियम तो पूर्ववत् रहते हैं, किन्तु सातावरण प्रादि कर्मों का उदय आजाने के कारण वह असंयत सम्यग्दृष्टि हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण कर्म किंचित् भी चारित्र नहीं होने देता है। इस प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि के कथंचित् यम-नियम होने में कोई बाधा नहीं है। -जें. ग. 8-1-70/VII/र. ला. जन असंयत सम्यक्त्वी के पापों का प्रभाव नहीं है शंका-क्या असंयत सम्यग्दृष्टि के पाप का अभाव नहीं होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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