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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६७५ हैं, संक्लेश, विशुद्ध, शुद्ध । तहां तीव्रकषायरूप संक्लेश है, मंदकषायरूप विशुद्ध हैं, कषायरहित शुद्ध हैं, तहाँ वीतराग विशेषज्ञानरूप अपने स्वभाव के घातक जो ज्ञानावरणादि घातियाकर्म, तिनका संक्लेश परिणाम करि तो तीव्रबंध होय है और विशुद्ध परिणाम करि मंदबंध होय है वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होय तो पूर्व जो तीव्रबंध भया था ताको भी मंद करे। अर शुद्ध परिणाम करि बंध न होय है केवल तिनकी निर्जरा ही होय है। सो अरहंतादि विष स्तवनादि रूप भाव होय है सो कषायनि की मन्दता लिये होय है तातै विशुद्ध परिणाम है। बहुरि समस्त कषायभाव मिटवाने का साधन है, तातै शुद्ध परिणाम का कारण है। मो ऐसे परिणाम करि अपना घातक घातिकर्म का हीनपना के होने ते सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट होय है। जितने अंशनिकरि वह हीन होय है तितने अंशनिकरि यह प्रगट होय है। ऐसे अरहंतादिकरि अपना प्रयोजन सिद्ध होय है । अथवा अरहंत आदि को आकार अवलोकना वा स्वरूप विचार करना वा वचन सुनना वा निकटवर्ती होना वा तिनके अनुसार प्रवर्तना इत्यादि कार्य तत्काल निमित्त होय रागादि को हीन करे हैं। जीव अजीवादि का विशेषज्ञान ( भेदविज्ञान ) को उपजावे है तातै ऐसे भी अरहंतादि करि वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजन की सिद्धि होय है। श्री भावपाहुड में भी कहा है "णियसत्तिए महाजस ! भत्तीराएणणिच्चकालम्मि । जिनभत्तिपरं विज्जावच्चं दस-वियप्पं ॥१०५॥' अर्थात्-हे महायश मुने ! अपनी शक्ति अनुसार भक्ति और अनुराग से नित्य जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में तत्पर दस प्रकार की वैयावृत्य को करता है। इसप्रकार अरहंत आदि की भक्ति के द्वारा अपने प्रयोजन की सिद्धि होती है अतः वे परमेष्ठी हैं । -जै. सं. 16-1-58/VI) रामदास कराना व्याधिप्रशमन में जिनभक्ति सक्षम है शंका-मुझे शारीरिक व्याधि है उसका प्रशमन करने हेतु क्या जिन-भक्ति सक्षम है ? औषधिसेवन तो कर ही रहा हूँ; अन्य क्या किया जाय जिससे व्याधि से मुक्ति मिले। समाधान-समस्त दुःखों के निवारण में जिन भक्ति अतिसक्षम है। भक्तामर स्तोत्र का ४५ वो काव्य (बसन्ततिलका छन्व)" उतभीषण ......." तथा उसकी ऋद्धि एवं मंत्र का सवा लक्ष जाप्य करने से लाभ हो सकता है। • यह सब अपने पाप कर्म का ही फल है। अन्य किसी का कोई दोष नहीं है । मन्त्राराधन करने से पुण्य का बन्ध होगा और पूर्वकृत पाप का पुण्यरूप संक्रमण भी होगा। कर्म बहुत बलवान हैं । श्री आदिनाथ तीर्थकर तथा श्री पार्श्वनाथ भगवान को भी इन्होंने नहीं छोड़ा; हमारी बात तो दूर है। "पुण्य पाप फल माहि, हरष बिलखो मत भाई। यह पुद्गल पर्याय, उपजि विनसे थिर नाहीं॥ इसका निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिए । -पत्राचार 15-7-76/I, II/प्त. ला. जैन, भीण्डर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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