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________________ [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-प्राज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व श्री पं० जयचन्दजी हो गये हैं जो नयशास्त्र व अनेकान्त के ज्ञाता थे। उन्होंने इस गाथा के भावार्थ के अन्त में लिखा है 'एकदेश मोह वक्षोभ की हानि होय है, तातै शुभ परिणाम कू भी उपचार करि धर्म कहिये है।' इस वाक्य मे स्पष्ट है कि 'पूजादि व व्रत आदि शभ परिणाम के कारण मोह व क्षोभ की एक देश हानि होय है।' मोह व क्षोभ की हानि धर्म है। अतः पूजादि एकदेश धर्म के कारण हैं। कारण में कार्य का उपचार करके पूजादि को भी धर्म कहा है, क्योंकि कारण का कार्य से अभेद है (ष. खं० पु. १२ पृष्ठ २८०)। पूजादि से पुण्यबंध होता है ऐसा एकान्त नहीं है, क्योंकि पूजादि से कथंचित् मोह ( मिथ्यात्व ) क्षोभ ( रागद्वेष ) की हानिरूप धर्म भी होता है। एकान्त से धर्म या पुण्य माननेवाले लौकिकजन तथा अन्यमति हैं । विशेष के लिए मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ९ देखना चाहिए । इसी भावपाहुड की गाथा १०५ में श्री १०८ कुन्दकुन्द आचार्य ने भी भक्ति का उपदेश दिया है । 'णियसत्तिए महाजस भत्तोराएण णिच्चकालम्मि । तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं वसवियप्पं ॥'पं0 जयचन्दजी कृत अर्थ-हे महाशय ? हे मुने ! भक्ति का राग करि तिस वयावृत्त्य कू सदाकाल अपनी शक्ति करि तू करि, कैसे-जिन भक्ति विषं तत्पर होय तैसे, कैसा है वैयावृत्त्य-दश विकल्प है दशभेदरूप है। यदि जिनेन्द्रभक्ति केवल बंध का ही कारण होती तो श्री कुन्दकुन्द आचार्य मुनियों को भक्तिका उपदेश क्यों देते। जब मुनियों के लिए यथाशक्ति भक्ति का उपदेश है तो श्रावकों को तो भक्ति अवश्य करनी चाहिए । यदि जिनभक्ति कथंचित् भी धर्म न होकर अधर्म होता तो श्री कुन्दकुन्द जैसे महान् आचार्य भावपाहुड ग्रन्थ में भक्ति करने का कैसे उपदेश देते ? वे तो वीतरागी, अभिमान से रहित, प्राणीमात्र के हित थे। उन्होंने तो धर्म करने का ही उपदेश दिया है जिससे जीवमात्र कर्मबंध से छूट अनन्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेवे।। -जे. सं. 19-12-57/V/ रतनकुमार जन प्रभु भक्ति से अपने प्रयोजन की सिद्धि होती है शंका- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को परमइष्ट क्यों कहा जाता है जबकि जीव सुखी अथवा दुःखी अपने परिणामों से ही होता है । संसार व मोक्ष भी जीव के अपने परिणामों से ही है। समाधान-जीव को सुख, दुःख, संसार व मोक्ष अपने परिणामों से होता है यह बात कथंचित् सत्य है। परन्तु यह भी विचारणीय है कि जीव के वे परिणाम परसापेक्ष हैं या परनिरपेक्ष ? यदि वे परिणाम परनिरपेक्ष हैं तो वे सदा ही रहने चाहिए ( सर्वदोत्पात्तरनवेक्षत्वात् )। यदि वे परिणाम परसापेक्ष हैं तो पर सहकारी आया तब वे परिणाम हए, जो ऐसा न मानिये तो कार्य होने का अभाव है ( परापेक्षणे परिणामित्वमन्यया तदभावात)। क्योंकि इन परिणामों की सर्वकाल उत्पत्ति नहीं है इससे सिद्ध होता है कि ये परिणाम पर सापेक्ष हैं। सुख व मोक्षरूप परिणाम जीव के प्रयोजनीभूत हैं और ये परिणाम परसापेक्ष हैं प्रतः जिनकी सहकारिता से इन सुख व मोक्षरूप परिणामों की उत्पत्ति होय, तिनको इष्ट कहते हैं। श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक में भी इसप्रकार कहा है'जाकरि सुख उपजे वा दुःख विनशे तिस कार्य का नाम प्रयोजन है। बहुरि तिस प्रयोजन की जाकरि सिद्धि होय सो ही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसर विष स्व वीतराग विशेष ज्ञान का होना सो ही प्रयोजन है जातें या करि निराकूल सांचे सुख की प्राप्ति होय है। और सर्व आकुलतारूप दुःख का नाश होय है । बहुरि इस प्रयोजन की सिद्धि प्ररहंतादिकरि करि होय है। कैसे ? सो विचारिए हैं । आत्मा के परिणाम तीन प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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