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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६६६ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों को धर्म कहा जाता है। तथा वही मोक्षमार्ग है जो प्रमाण से सिद्ध है । वह धर्म सम्पूर्णधर्म और देशधर्म के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से प्रथम भेद में दिगम्बर मुनि और द्वितीय भेद में गृहस्थ स्थित होते हैं। जिन पूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह कर्म गृहस्थ के लिये प्रतिदिन करने योग्य हैं अर्थात् ये गृहस्थ के आवश्यक कार्य हैं । जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान के दर्शन, पूजन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य अर्थात अहंत बन जाते हैं। अभिप्राय यह है कि वे स्वयं भी परमात्मा बन जाते हैं। जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं न पूजन करते हैं और न स्तुति ही करते हैं उनका जीवन निष्फल है, तथा उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है। श्रावकों को प्रातःकाल उठ करके भक्ति से जिनेन्द्रदेव तथा निग्रंथगुरु का दर्शन और वन्दना करके धर्मश्रवण करना चाहिए। तत्पश्चात् अन्य कार्यों को करना चाहिए, क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में धर्म को प्रथम बतलाया है। श्री कुन्दकुन्द भगवान ने भी कहा है कि दान और पूजा श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। जो जिनपूजा व मुनिदान करता है वह श्रावक मोक्षमार्ग में रत है । दाणं पूजा-मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झाणायणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ॥११॥ जिणपूजा मुणिवाणं करेइ जो देइ सत्तिहवेण । सम्माइट्ठी सावयधम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ ॥१३॥ रयणसार अर्थात्-श्रावकधर्म में दान और पूजा मुख्य कर्तव्य हैं । जो दान व पूजा नहीं करता वह श्रावक नहीं है। जो निज शक्ति अनुसार जिनपूजा व मुनिदान करता है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक मोक्षमार्ग में रत है। इन उपयुक्त आर्ष वाक्यों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जिनेन्द्र-भक्ति उस धर्म का अंग है जो धर्म प्राणी को संसार-दुःख से निकाल कर मोक्ष-सुख में रखता है। इसलिये जिनेन्द्र-भक्ति को मात्र आस्रव-बन्ध का कारण तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि प्रास्रव-बन्ध तो संसार के कारण हैं, मोक्ष के कारण नहीं हैं। मोक्ष के कारण संवर व निर्जरा हैं। इसलिए जिनेन्द्रभक्ति से संवर-निर्जरा अवश्य होनी चाहिये अन्यथा जिनेन्द्र-मक्ति धर्म का अंग नहीं हो सकती है। श्री कुन्दकुन्द भगवान ने कहा है कि जिनेन्द्र-भक्ति संसाररूपी बेल की जड़ को अर्थात् कर्मों को खणे (निर्जरा करे ) है । गाथा इस प्रकार है जिणवरचरणबुरुहं णमंति, जे परमभक्तिराएण । ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभाव सत्येण ।। १५३ ॥ भावपाड अर्थ-जे पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवर के चरण कमलनिकू नमै हैं ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि जन्म अर्थात् संसाररूपी बेलके मिथ्यात्वादि कमरूपी मूल ( जड़ ) को खणे है अर्थात् क्षय करे है, निर्जरा करे है। मिन्नात्मानमुपास्यात्मा, परोभवति तादृशः। वतिर्वीपं यथोपास्य भिन्ना भवति ताशी ॥९२॥ समाधि श० अर्थ-यह जीव अपने से भिन्न अहंत-सिद्ध स्वरूप परमात्मा की उपासना करके उन्हीं सरीखा प्रहंत-सिद रूप परमात्मा हो जाता है। जैसे कि बत्ती दीपक से भिन्न होकर भी दीपक की उपासना से दीपक स्वरूप हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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