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________________ ६६८ ] अर्थ- सर्वज्ञ देव के द्वारा कहा हुआ धर्म दो प्रकार का धर्म | प्रथम के बारह भेद और दूसरे के दस भेद कहे हैं । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : - एक गृहस्थ का धर्म, दूसरा निग्रंथ मुनि का सायारो णायारो भवियाणं जिणेण देसिओ धम्मो । णमिऊण तं जिणिदं सावयधम्मं परुवेयो ॥ २ ॥ fasलगिरि पठाए णं इंदभूवणा सेणियस्स जह सिद्ध । तह गुरुपरिवाडीए मणिज्जमाणं णिसामेह ॥ ३ ॥ विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जण विहाणं । सत्तीए जहजोग्गं कायध्वं देसविरहि ।।३१९॥ वसु. श्री. अर्थ - जिनेन्द्रदेव ने भव्य जीवों के लिये सागार ( गृहस्थ ) धर्म और अनगार ( मुनि ) धर्म का उपदेश दिया है ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके मैं ( सिद्धान्तचक्रवर्ती वसुनन्दि आचार्य श्रावकधर्म का प्ररूपण करता हूँ । विपुलाचल पर्वत पर ( भगवान महावीर के समवसरण में ) श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर ने विम्बसार नामक क्षणिक महाराज को जिसप्रकार से श्रावकधर्म का उपदेश दिया है उसी प्रकार गुरु-परम्परा से प्राप्त वक्ष्यमाण भावधर्म को, हे भव्य जीवों ! तुम सुनो। देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिये । Jain Education International देवाधिदेवचरणे परिचरणं, सर्व दुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादाहृतो नित्यम् ॥ ११८ ॥ रत्न. श्री. अर्थ- इच्छित फल देने वाले और विषयवासना की चाह को नष्ट करने वाले देवाधिदेव अरिहंत देव के चरण में जो पूजा की जाती है वह पूजा भवभ्रमणरूपी सब दुःखों का नाश करने वाली है अतएव श्रावक (गृहस्थ ) उस भगवत्पूजा को प्रतिदिन करें । संयमस्तपः । श्री पद्मनन्दि आचार्य भी पद्मनन्दि पञ्चविंशति में इस प्रकार कहते हैंसम्यग्ग्बोधचारित्र त्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पन्थाः स एव स्यात् प्रमाणपरिनिष्ठितः ॥ २ ॥ संपूर्ण देश-भेवाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत् । आद्य भेदे च निर्ग्रन्थाः द्वितीये गृहिणः स्थिताः || ४ || देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्यायः दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥ ७ ॥ प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये । ते च दृश्याश्य पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ॥ १४ ॥ ये जिनेन्द्र न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रम् ||१५|| प्रातरुत्थाय कर्त्तव्यं देवगुरुदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्र तिरुपासकः ॥ १६ ॥ पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादो धर्मः प्रकीर्तितः ।। १७ ।। छठा अधिकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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