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________________ ६५० ] [पं. रतनचन्द जैन मुख्तार: जिस वनस्पति में उपर्युक्त लक्षणों में से कोई एक लक्षण भी हो वह वनस्पति सप्रतिष्ठित प्रत्येक है । सप्रतिष्ठित प्रत्येक-वनस्पति के आश्रय अनन्त बादरनिगोदजीव रहते हैं। अतः सप्रतिष्ठित प्रत्येकवनस्पति के खाने में अनन्तजीवों का घात होता है और मल्पफल होता है इसलिये यह अभक्ष्य हैं। इतनी विशेषता है कि मालू, अदरक, मूली प्रादि कंदमूल की वृद्धि होनेपर भी अप्रतिष्ठित नहीं होते, किन्तु अन्य वनस्पतियों की वृद्धि होने पर प्रप्रतिष्ठित हो जाती हैं । श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा भी है अल्पफल बहुविधातानुमूलकमााणिशङ्गवेराणि । नवनीत-निम्ब-कुसुमं कंतकमित्येवमवहेयम् ॥८५॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार अल्पफल और बहुविधात के कारण मूली आदि मूल, आर्द्र अदरक मादि कंद, नवनीत-मक्खन, नीम के फूल, केतकी के फूल, ये सब और इसी प्रकार की दूसरी सब वस्तुएँ भी त्याज्य हैं। यदि यहाँ पर यह कहा जाय कि जिसप्रकार सूखी अदरक अर्थात् सोंठ व सूखी हल्दी अचित्त हो जाने के कारण भक्ष्य हो जाते हैं उसी प्रकार सूखे आलू भी भक्ष्य हो जाने चाहिये ? ऐसा तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि सूखी हल्दी व सोंठ का ग्रहण बहुत अल्प मात्रा में औषधिरूप में होता है, ये दोनों बात व कफ की नाशक हैं, अस्थि प्रादि को बल देती हैं, किन्तु इन्द्रिय लोलुपता के कारण विशेष रागभाव से प्रालू अधिक मात्रा में ग्रहण होता है यानितु पुनर्भवेयुकालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥७३॥ पुरुषार्थसिद्धिउपाय इस श्लोक में श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने यह बतलाया है कि काल पाकर ये सूख भी जावें, किन्तु उनके भक्षण करनेवाले के विशेष रागरूप हिंसा अवश्य होती है। -जं.ग. 20-5-76/VI/सु. कु. अ. कु. मटर प्रादि के भक्षण में निर्दोषता शंका-मटर में जितने दाने होते हैं उतने ही जीव होते हैं । ऐसा ही अन्य साग-सब्जी में है। इसप्रकार प्रत्येक मनुष्य काफी मांस खाने का दोषी क्यों नहीं? समाधान-मटर आदि साग सब्जी में वनस्पतिकाय के जीव होते हैं, जो एकेन्द्रिय होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के संहनन नामकर्म का उदय नहीं होता ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड )। अतः एकेन्द्रिय जीवों का औदारिकशरीर होते हुए भी उसमें धातु व उपधातु नहीं होते । जब धातु उपधातु नहीं होते तो मांस, रुधिर, अस्थि भी नहीं होते। अतः साग सब्जी व जलादि के भक्षण में मांस का दोष नहीं लगता । दो इन्द्रिय आदि जीवों के संहनन नामकर्म का उदय होता है, अतः उनके औदारिकशरीर में मांस आदि होते हैं। रात को भोजन करने में वे दीन्दियादि जीव भोजन में गिर जाते हैं, जिनकी अवगाहना छोटी होती है अतः वे रात के समय दिखाई नहीं देते, अतः रात को भोजन करने में मांस-भक्षण का दोष लगता है। इसी प्रकार बाजार का आटा प्रादि खाने में भी मांस भक्षण का दोष लगता है, क्योंकि उसमें प्रायः त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं अथवा वह धुने हुए अन्न आदि का होता है। प्रतः इनका त्याग अवश्य होना चाहिये। -जं. ग. 3-10-63/IX) ....... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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