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________________ ६४४ ] वधुवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनुजेति मतिर्ब्राह्मगृहाश्रमे ॥४०५॥ उपासकाध्ययन पृ. १९१ 'वधुवित्त' पर टिप्पण नं० २ में "परिणीता में प्रवधृता च ।" लिखा है । 'वित्त' का प्रर्थं 'अवाप्त, अनुसंहित' भी है। इससे स्पष्ट है कि यहां पर 'वित्त स्त्री' से श्री सोमदेवश्राचार्य का अभिप्राय 'वेश्या' से नहीं रहा है किन्तु 'अवधूता स्त्री' से रहा है अर्थात् वह स्त्री जिसके साथ विवाह होना दृढ़ निश्चित हो गया है । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अपनी विवाहिता स्त्री और अवधृता स्त्री के अतिरिक्त अन्य सब स्त्रियों को अपनी माता बहिन और पुत्री मानना ब्रह्मचर्याणुव्रत है । ऐसा अर्थ होने से सिद्धान्त से विरोध भी नहीं आता और जाता है । 'वित्त स्त्री' का वेश्या अर्थ करने से सिद्धान्त से विरोध अभिप्राय वेश्या नहीं है । अन्य प्राचार्यों के कथन से आता है । अतः यहाँ पर समन्वय भी हो 'वित्त स्त्री' का -जै. ग. 14-12-72 / VII क. दे. गया सप्तव्यसनसेवी के सम्यक्त्वोत्पत्ति नहीं हो सकती शंका - श्री पं० कैलाशचन्दजी सम्पादक 'जैन सन्देश' का ऐसा मत है कि सप्तव्यसन का सेवन करते हुए सम्यग्दर्शन हो सकता है, सप्तव्यसन तो महानु पाप हैं। क्या इतने तीव्र पापरूप परिणामों के होते हुए भी सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो सकती है ? समाधान- प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन की उत्पत्ति से पूर्व पाँच लब्धियाँ होती हैं । १. क्षयोपशमलब्धि, २. विशुद्धि लब्धि, ३. देशनालब्धि, ४. प्रायोग्यलब्धि, ५. करणलब्धि | Jain Education International १. पूर्व संचित पाप कर्मों का अनुभागस्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा अनन्तगुणाहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किया जाता है, उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है । २. प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रम से उदीरत अनुभागस्पर्धकों से उत्पन्न हुआ, सातादि शुभकर्मों के बन्ध का निमित्तभूत और असातादि प्रशुभकर्मों के बन्ध का विरोधी जो जीव का परिणाम है वह विशुद्धिलब्धि है । ३. छह द्रव्यों और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । उस देशना से परिणत आचार्य आदि को उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं । ४. सर्वकर्मों की उत्कृष्टस्थिति को और पापकर्मों के उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । For Private & Personal Use Only ५. अनन्तगुणीविशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय विशुद्धि को प्राप्त होता हुआ यह जीव द्विस्थानीय ( निम्ब, कांजीरूप) अनुभाग को समय-समय के प्रति अनन्तगुणितहीन बांधता गुड़, खाँड आदिरूप चतुःस्थानीय अनुभाग को प्रतिसमय अनन्तगुणित बाँधता है । प्रत्येक स्थितिबन्धकाल के पूर्ण होने पर पल्योपम के संख्यातवेंभाग से हीन अन्य स्थिति को बाँधता है । इसीप्रकार स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात व गुणश्रेणी निर्जरा करता है । यह करणलब्धि है । अप्रशस्त कर्मों के श्रौर प्रशस्तकर्मों के www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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