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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६४३ जुआ, शराब, मांस, वेश्या शिकार, चोरी, परदारा सेवन, ये सातों व्यसन दुर्गति के कारणभूत पाप हैं। वेश्या सेवन जनित पाप से यह जीव घोरसंसारसागर में भयानक दुःखों को प्राप्त होता है, इसलिये मन, वचन; काय से वेश्या का सर्वथा त्याग करना चाहिये। एदे महागुभावा दो एक्केक्क-विसण-सेवाओ। पत्ता जो पुण सत्त वि सेवइ वणिजए कि सो॥१३२॥ व. श्रा. एक एक व्यसन का सेवन करने से ऐसे-ऐसे महानुभावों का पतन हुआ तो सातों ही व्यसन सेवन करने वाले के पतन का क्या वर्णन किया जा सकता है ? सत्यशौचशमसंयमविद्या शीलवृत्तगुणसत्कृतिलज्जाः। याः क्षिति पुरुषस्य समस्तास्ता बुधः कथमिहेच्छति वेश्याः ।।५९६॥ सुभाषितरत्नसंदोह वेश्यासेवन मनुष्य को सत्य, शौच, शम, संयम विद्या, शील, सच्चरित्रता, सत्कार और लज्जा आदि गुणों से बात की बात में रहित कर देता है। ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो वेश्या-सेबन की इच्छा करेगा ? अर्थात् नहीं करेगा। विमोहयति या चित्तं मविरेव निषेविता। सा हेयादरतो वेश्या शीलालंकारधारिणा ॥१२॥६६॥ अमितगति श्रावकाचार जो वेश्या मदिरा की ज्यों सेई भई चित्त को मोह उपजावे है सो वेश्या शीलवान पुरुष के द्वारा दूरतें ही त्यागने योग्य है। व्यसनान्येवं यः त्यक्तुमशक्तो धर्ममोहते । चरणाभ्यां बिना खंजो मेरुमारोहितु स च ॥१२॥५६॥ दर्शनेन समं योऽत्र सोऽष्टमूलगुणान् सुधीः । बधाति व्यसनान्यव त्यक्ता दर्शनिको भवेत् ॥१२॥६०॥ प्रश्नोत्तर श्रावकाचार जो मनुष्य इन व्यसनों को बिना छोड़े ही धर्म धारण करने की इच्छा करता है वह मूर्ख बिना पैरों के ही मेरु-पर्वत पर चढ़ना चाहता है । जो बुद्धिमान सम्यग्दर्शन के साथ-साथ पाठों मूलगुणों को पालन करता है और सातों व्यसनों का त्याग करता है वह दार्शनिक अथवा प्रथम प्रतिमा दर्शन प्रतिमा को धारण करने वाला होता है : न सा सेव्या त्रिधा वेश्या शीलरत्नं यियासता। जानानो न हि हिंस्त्रत्वं व्याघ्री स्पृशति कश्चन ॥१२७६॥ अमितगति श्रावकाचार शीलरत्न की रक्षा करनेवाले पुरुष के द्वारा वेश्या मन, वचन, काय करि सेवन योग्य नहीं। जैसे व्याघ्री को हिंसक जानकर कोई भी पुरुष व्याघ्री को नहीं स्पर्श करे है। इतना स्पष्ट कथन करते हुए, यह असम्भव था कि श्री सोमदेव जैसे महानाचार्य ब्रह्मचर्य अणुव्रत में वेश्या सेवन की छूट दे देते। इससे स्पष्ट है कि निम्नलिखित श्लोक के यथार्थ अभिप्राय को न समझने के कारण तथा श्री सोमदेवाचार्य पर श्रद्धा न होने के कारण निम्नलिखित श्लोक के अनुवाद में भूल हो गई है जिसके मात्र हिन्दी अनुवाद पढ़ने वाले को भ्रम हो जाता है । मूल श्लोक इस प्रकार है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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