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________________ ६३८ ] "सम्मत्तहिमुह मिच्छो बिसोहिबड्ढीहि वड्ढमाणो हु ।" ल० सा० अर्थात् सम्यक्त्व के सम्मुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धपने के वृद्धि से बढ़ता है । जिस मनुष्य के मांसादि के भक्षण का त्याग नहीं है उसके विशुद्धि ही नहीं होती है, विशुद्धपने की वृद्धि तो हो ही नहीं सकती । जिस मनुष्य ने मांसादि का त्याग कर दिया है उसके ही विशुद्धपने की वृद्धि संभव है । कषायपाहुड में श्री गुणधर आचार्य कहते हैं कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के लिये मनुष्य के तेज ( पीत) लेश्या के जघन्यअंश होने चाहिये, क्योंकि इतनी विशुद्धता के बिना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता । "जहणए तेउलेस्साए ।" अर्थात् - तेजोलेश्या के जघन्यअंश में ही वर्तमान मनुष्य सम्यक्त्व का प्रारम्भक होता है, अशुभलेश्या वाला नहीं । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार 1 . मांसभक्षण करनेवाले मनुष्य के प्राय: अशुभलेश्या रहती हैं। उसके पीतलेश्या के जघन्यअंश होने की सम्भावना नहीं है । पीतलेश्या के जघन्यअंश जैसी विशुद्धता के लिये मांसादि के त्यागरूप व्रत अवश्य होने चाहिये । चारित्रमोहनीय कर्म की २५ प्रकृतियाँ हैं । उनमें चार अनन्तानुबन्धी की प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शन की घातक हैं इसलिये दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियाँ और चारित्रमोहनीय को चार अनन्तानुबन्धीप्रकृतियाँ इन सातप्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम और क्षय से सम्यक्त्व होता है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने चारित्रमोहनीय कर्म की चार अनन्तानुबन्धीप्रकृतियों को सम्यक्त्व की घातक कहा है । पढमाविया कसाया सम्मत देससयलचारित ं । जहाखादं घादंति य गुणणामा होंति सेसावि ||४५ || गो० क० अर्थात् - अनन्तानुबन्धी, प्रप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान श्रौर संज्वलन ये कषायें क्रमसे सम्यक्त्व को, देशचारित्र को, सकलचारित्र को और यथाख्यातचारित्र को घातती हैं । चारित्रमोहनीय की अनन्तानुबन्धी में सम्यग्दर्शन को घातती है। मात्र दर्शनमोहनीय कर्म की मिध्यात्व प्रकृति ही सम्यग्दर्शन को घातती है ऐसा मानना उचित नहीं है । अतः दर्शनमोहनीय कर्म के उपशम, क्षयोपशम श्रौर क्षय के साथ-साथ चारित्रमोहनीयकर्म की चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय होने पर सम्यग्दर्शन होता है । सम्यक्त्व के लिये मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी के उदय का प्रभाव होना चाहिये । Jain Education International श्रष्टमूलगुणधारी श्रावक को रात्रि में बने भोजन का तथा विदेशी दवाओं का सेवन नहीं करना चाहिये शंका- पाक्षिक भावक रात्रि में बना हुआ भोजन तथा विदेशी दवा का प्रयोग कर सकता है या नहीं ? समाधान-अष्टमूल गुण में रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुरण है । कहा भी है मद्यपलमधुनिशाशन पंच फलीविरतिपंच काप्तनुती । जीवदया जलगालन मिति च कचिदष्टमूलगुणाः ॥४८॥ | For Private & Personal Use Only - जै. ग. 13-12-65 / XI / भगवानदास www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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