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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ६०१ समाधान-लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य की आयु का बन्ध करके दान देने पर अन्य अपकर्ष में वह पुनः एक पूर्वकोटि से अधिक प्रायु का बन्ध करके अथवा, अन्तिम असंक्षेपाना में अधिक स्थिति वाली मनुष्यायु का बन्ध हो जाने पर वह भोगभूमि में उत्पन्न हो सकता है। इसमें कुछ भी बाधा नहीं है। -पलाचार 21-4-80/ ज. ला. जैन, भीण्डर तीर्थकर प्रकृतिबन्धक का तृतीय पृथिवी तक गमन शंका-षोडशकारण भावना भाने से जिस जीव को तीर्थकर प्रकृति का बंध हो गया, क्या वह जीव पूर्व संचित कर्म से नरकों में जा सकता है, यदि हाँ तो कौन से नरक तक ? समाधान-जिस मनुष्य ने नरकायु का बंध कर लिया है और उसके पश्चात् तीर्थकर प्रकृति का बंध करता है तो वह मनुष्य मरकर तीसरे नरक तक उत्पन्न हो सकता है । महाबंध में श्री भूतबली भगवान ने कहा है"तित्थयर-जहणणेण चदुरासीवि-वास सहस्साणि, उक्कस्सेण तिणि साग० सादिरेयाणि ।" -महाबंध पु० १ पृ० ४५ नरकगति में एक जीव की अपेक्षा तीर्थंकर प्रकृति का जघन्य बंध काल ८४ हजार वर्ष है तथा उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर प्रमाण है। साधिक तीन सागर की आयु तीसरे नरक में ही संभव है, क्योंकि दूसरे नरक में पूरे तीन सागर की है । धवल पु० ६ पृ. ४९२ सूत्र २२० में भी कहा है नरक में ऊपर की तीन पृथिवियों से निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले ग्यारह गुणों को प्राप्त कर सकते है (१) कोई मभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, (२) कोई श्रुत ज्ञान उत्पन्न करते हैं, (३) मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न करते हैं, (४) अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, (५) केवलज्ञान, (६) सम्यग्मिथ्यात्व, (७) सम्यक्त्व, (5) संयमासंयम, (९) संयम, (१०) तीर्थकर उत्पन्न करते हैं, (११) अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं। इस सूत्र से भी सिद्ध होता है कि तीसरे नरक से निकल कर तीर्थकर हो सकता है। -जं.ग. 10-4-69/V/........ देव पर्याय से तिर्यंच पर्याय शंका-पहले और दूसरे स्वर्ग के देव क्या मरकर तिर्यच होते हैं, ऐसा कोई नियम है ? समाधान-बारहवें स्वर्ग तक के देव मर कर तिर्यच हो सकते हैं और दूसरे स्वर्ग तक के देव मर कर एकेन्द्रिय भी हो सकते हैं। ऐसा शास्त्रवचन है। -जं. सं 29-11-56/ल. प. धरमपुरी सर्वार्थसिद्धि से पाकर अवधि सहित ही मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं शंका-भरतजी और बाहुबलीजी सर्वार्थ सिद्धि से आये थे, क्या वे अवधिज्ञान साथ लाये थे? जबकि तीर्षकरों के अतिरिक्त अन्य के साथ अवधिज्ञान नहीं माता। तयच पयाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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