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________________ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व पंचम काल में मनुष्यों की आयु संख्यात वर्ष की होती है असंख्यात वर्ष की नहीं, क्योंकि कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है । इसलिये कर्मभूमिया मनुष्य संख्यातवर्षायुष्क कहलाते हैं । इस सम्बन्ध में षट्खंडागम के निम्न सूत्र हैं - मणुससम्माइट्ठी संखेज्जवासाउआ मणुस्सा मगुस्सेहि कालगदसमाणा कदि गविओ गच्छंति ? ॥१६३॥ एषकं हि चेव देवदि गच्छंति ॥ १६४ ॥ ध० पु० ६ पृ० ४७३-४७४ अर्थ-मनुष्य सम्यग्दृष्टि संख्यातवर्षायुष्क ( कर्म भूमिया ) मनुष्य, मनुष्य पर्याय से मरण कर कितनी गतियों में जाते हैं ? संख्यातवर्षायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य एकमात्र देवगति को ही जाते हैं । इस सूत्र की टीका में श्री वीरसेन आचार्य ने यह स्पष्ट बतलाया है कि देवगति को छोड़कर अन्य गतियों को बांध कर जिन मनुष्यों ने पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण किया है वे अपनी बन्धी हुई आयु के वश से पुनः मिथ्यात्व में जाकर मरण करते हैं, उन जीवों के मरण काल में सम्यक्त्व का अभाव पाया जाता है। दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले मनुष्य मरकर भोगभूमियों में उत्पन्न होते हैं, कर्मभूमियों के मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते। -जें. ग. 12-8-65/V/ ब. कुन्दनलाल मनुष्यों व अग्निवायुकायिकों की गत्यागति शंका-पंचास्तिकाय पृ० ६३ पर कृष्ण नील कापोत लेश्या के मध्यम अंश से मरे ऐसे तिथंच या मनुष्य अतिकायिक वायकायिक विकलत्रय असैनी पंचेन्द्री व साधारण वनस्पति में उपजे हैं। जबकि मनुष्य अग्निकाय और वायुकाय में पैदा नहीं होते ? समाधान-मनुष्य मरकर अग्निकायिक व वायुकायिक में उत्पन्न हो सकता है, किन्तु अग्निकाय और वायकाय का जीव मरकर मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकता । ष० खं० पु०६ पृ० ४६८ सूत्र १४१, १४२ व १४४ में कहा है 'संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य मरण कर चारों गतियों में जाते हैं। उनमें से तियंचों में जाने वाले उपर्युक्त मनष्य सभी तियंचों में जाते हैं' 'इससे स्पष्ट है कि कर्मभूमिज मनुष्य मरकर सभी तिर्यंचों में अर्थात् पाँचों स्थावरकाय, विकलत्रय, संज्ञी-असंज्ञी तियंचों में उत्पन्न होते हैं । किन्तु ष० ख० पु. ६ पृ. ४५८ सूत्र ११५ व ११६ में था कि 'अग्निकायिक और वायुकायिक बादर व सूक्ष्म पर्याप्तक व अपर्याप्तक तियंच मरण करके एकमात्र तियंचगति में ही जाते हैं। -जे. ग. 20-8-64/IX/ घ. ला. सेठी, खुरई प्रभव्य की उत्पत्ति चरमग्न वेयक तक शंका-अभव्य जीव नव अवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं या नहीं? . समाधान-अभव्य जीव नव ग्रंवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि पंच परिवर्तन में भव परिवर्तन में देवों की ३१ सागर आयु का कथन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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