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________________ ५८६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अन्तर्मुहूर्त बाद पुनः सप्तमनरक का नारको हो जाना संभव है। अथवा सप्तम नरक का एक जीव के जघन्य अन्तर शंका-सातवें नरक से निकलकर कम से कम कितने काल के पश्चात् वह जीव, पुनः सातवें नरक में जा सकता है? समाधान-सातवें नरक से निकलकर गर्मज संज्ञी पर्याप्त तियंचों में उत्पन्न हा। वहाँ अन्तमूहर्त रहकर सम्मूर्च्छन मत्स्यों में उत्पन्न हो पर्याप्ति पूर्ण कर सातवें नरक की आयु का बंध कर मरा और सातवें नरक में उत्पन्न हो गया। इस प्रकार सातवें नरक से निकल कर पुनः अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सातवें नरक में पहुंच सकता है। कहा भी है ___सत्तसु पुढवीसु खेरइयाणं तिरक्खमणुसगम्भोवक्कतियपज्जत्तएसुपज्जिय सध्वजहण्णमंतोमुत्तमच्छिय अप्पिवणिरएसुप्पण्णस्स अंतरकालो सरिसो त्ति वुत्तं होदि ॥' (ध. पु. ७ पृ. १८८ ) अर्थ-सातों ही पृथिवियों अर्थात् नरकों में नारकी जीवों के गर्भोपक्रान्तिक पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रहकर विवक्षित नरकों में उत्पन्न हुए जीव का अन्तर काल सदृश ही होता है, ऐसा प्रस्तुत सूत्र के द्वारा कहा गया है। -जे.ग. 15-1-68/VI/ ....... पंचमकाल में स्वर्ग-नरक में गमन कहाँ तक ? शंका-पंचमकाल में जीव स्वर्ग या नरक में कहाँ तक जाते हैं ? समाधान-पंचमकाल में पन्त के तीन संहनन हो सकते हैं । कहा भी हैचउत्थे पंचम छठे कमसो विय छत्तिगेक्क संहडणी ॥८॥ (कर्म प्रकृति ग्रंथ ) अर्थ-अवसर्पिणी के चौथे काल में छहों संहनन, पंचमकाल में अन्तिम के तीन संहनन और छठे काल में अन्तिम का एक सपाटिका संहनन होता है। सेवहेण य गम्मइ आदिदो चदुसु कप्पजुगलोत्ति। तत्तो बुजुगल जुगले कीलियणारायणद्धोति ॥३॥ सण्णी छस्संहडणो वच्चई मेघं तबो परं चावि । सेवडावीरहिवो पण • पण चदुरेगसंहडणी ॥५॥ ( कमें प्रकृति पंथ ) अर्थ-सृपाटिका संहनन वाला जीव लान्तव-कापिष्ठ स्वर्ग तक, कोलक संहनन वाला बारहवें स्वर्ग तक और नाराच संहनन वाला १६ स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है ।।८३॥ छहों संहनन वाले तीसरे नरक तक सपाटिका संहनन से रहित पांच संहनन वाले पांचवें नरक तक और सुपाटिका व कीलक को छोड़कर शेष चार मंहनन वाले छठे नरक तक और वववृषभनाराच संहनन वाला सातवें नरक तक उत्पन्न हो सकता है। __इससे सिद्ध होता है आजकल पंचम काल में सोलहवें स्वर्ग तक तथा छठे नरक तक जीव उत्पन्न हो सकता है। -ज.ग.30-11-67/VIII/कवरलाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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