SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 628
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८४ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार करते हैं, कोई अन्तकृत होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, वे सर्व दुःखों के अन्त होने का अनुभव करते हैं। __ "उपरि तिसृभ्य उद्वतितास्तिर्यक्षु ज्ञाताः केचितषडुत्पादयन्ति, मनुष्येषत्पन्नाः केचिन्मतिश्रु तावधिमनःपर्ययकेवलसम्यक्त्व सम्यक् मिथ्यात्वसंयमासंयमसंयमानुत्पादयन्ति, न च बलदेव वासुदेव चक्रधरत्वान्युत्पादयन्ति, केचि. तीर्थकरमुत्पादयन्ति, अपरे कर्माष्टकान्तकराः सिध्यन्ति । तत्त्वार्थ राजवातिक ३/६ यहां पर भी श्री अकलंकदेव ने प्रथम तीन नरक से निकले हुए नारकी के मनुष्य गति में तीर्थंकर पद प्राप्त करने का उल्लेख किया है । "जायंते तित्थयरा तदीयखोणीय परियंतं ॥३।२९१॥ त.प. अर्थ-तीसरी पृथिवी तक के नारकी जीव वहां से निकल कर तीर्थंकर हो सकते हैं । इस प्रकार नरक से निकल कर तीर्थकर होना आर्ष ग्रन्थों से सिद्ध है। राजा श्रेणिक व कृष्णजी नरक से निकलकर तीर्थंकर होंगे। -ज. ग. /17-6-71/IX/ रो. ला मित्तल नारकी मरकर प्रतिचक्री नहीं होता शंका-अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार, द्वितीय अधिकार, श्लोक १५२ में लिखा है कि 'नरक से निकल कर नारकी बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं होते ।' क्या प्रतिनारायण हो सकते हैं ? समाधान-उक्त कथन में नारायण में प्रतिनारायण गभित होने से 'प्रतिनारायण' शब्द का पृथक् ग्रहण नहीं किया गया है । अर्थात् नरकों से निकला जीव प्रतिनारायण भी नहीं होता। -पवावार 21-4-80/ज. ला.जैन, भीण्डर सप्तम पृथिवी से निर्गत जीव के सम्यक्त्व गुणोत्पादन शंका-धवल पु०६ पृ० ४८४ पर सातवें नरक से निकले हुए जीव के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं बतलाई, किंतु तिलोयपण्णत्ती में सम्यग्दर्शन ग्रहण बताया है तथा धवल पु.९ पृ. ३५२ में सातवें नरक से निकल कर मोक्ष जाना बताया है, सो कैसे? समाधान-धवल पु० ६ पृ० ४८४ पर सातवें नरक से निकले हुए जीव के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का निषेध किया है, किन्तु तिलोयपण्णत्ती अधिकार २, गाथा २९२ में बिरले जीव के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति कही है। ध० १०६० ४८४ पर बहुलता की अपेक्षा से सातवें नरक से निकले हए जीव के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं कही। तिलोयपण्णत्ती में सूक्ष्म दृष्टि से कथन है अत: वहाँ कभी किसी एक जीव के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो जाने से विधान किया अथवा मतभेद समझना चाहिए। सातवीं पृथ्वी से निकलकर जीव तिर्यंचों में उत्पन्न होता है एक अन्तर्मुहूर्त काल में तियंचों के दो-तीन भव धारण कर मनुष्यों में उत्पन्न हो आठ वर्ष की आयु में सम्यक्त्व व संयम को ग्रहण कर एक अन्तर्मुहूर्त में कर्मों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy