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________________ ५८० ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-पृथिवीकाय के २२ लाख कोटि, जलकाय के ७ लाख कोटि, अग्निकाय के ३ लाख कोटि, वायुकाय के ७ लाख कोटि, द्वीन्द्रियों के ७ लाख कोटि, ते इंद्रियों के ८ लाख कोटि, चतुरिन्द्रियों की ९ लाख कोटि, वनस्पतिकाय के २८ लाख कोटि, जलचरों के १२॥ लाख कोटि, पक्षियों की १२ लाख कोटि, पशुओं की १० लाख कोटि, रेंगने वाले ( छाती के सहारे चलने वाले ) ६ लाख कोटि, देवों को २६ लाख कोटि, नारकियों की २५ लाख कोटि, मनुष्यों को १२ लाख कोटि, इस प्रकार सम्पूर्ण जीवों के समस्त कुलों की संख्या-- १९७५००००००००००० होती है। श्री मूलाचार के पर्याप्त्यधिकार में गाथा १६६ से १६८ तक ज्यों की त्यों वे ही हैं जो गोम्मटसार जीवकाण्डकी गाथा ११३-११५ तक है। गोम्मटसार ११६ के स्थान पर मूलाचार गाथा १६९ इस प्रकार है छब्बीसं पणबीसं चउदस कुल कोडि सदसहस्साई। सुरणेरइयणराणं जहा कम होइ णायच्वं ॥१६९॥ गोम्मटसार जीवकांड गाथा ११६ में 'बारस' है और मूलाचार पर्याप्त्यधिकार गाथा १६९ में 'चउदस' का शब्द है। अन्य शब्दों में भी अन्तर है किन्तु अर्थभेद नहीं है। किन्तु 'बारस' और 'चउदस' में अर्थभेद है। 'बारस' का अर्थ बारह है और 'चउदस' का अर्थ चौदह है। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११७ जिसमें समस्त कुलों की संख्या १९७॥ लाख कोटि बताई है उसके स्थान पर मूलाचार पर्याप्त्यधिकार में कोई गाथा समस्त कुल संख्या बतलाने वाली नहीं है। इन दोनों गाथाओं से (११६ व १६६ ) ऐसा ज्ञात होता है कि आचार्यों में सम्भवतः मतभेद रहा है। लेखक की असावधानी के कारण मूलाचार में 'बारस' के स्थान पर चउदस' लिखा गया हो, ऐसी सम्भावना कम है। -जं. सं. 21-6-56/VI/ . ला. जैन, केकड़ी निगोवराशि कुल/योनि शंका-चौरासी लाख जीवयोनि के वर्णन में निगोर राशि की योनि संख्या बताई गई है पर कुल कोडि के वर्णन में निगोदों की कोई संख्या ही नहीं दी गई, इसका क्या कारण है ? क्या निगोवों के कुल नहीं होते ? जब योनियां होती हैं तो कुल क्यों नहीं होते ? सप्रमाण उत्तर प्रदान करें। समाधान-निगोद भी वनस्पतिकाय में सम्मिलित है। वनस्पतिकाय-'प्रत्येक और साधारण' से दो प्रकार हैं। उनमें से 'साधारण' को निगोद कहते हैं। कहीं कहीं पर 'प्रत्येक वनस्पति' को 'वनस्पति' के नाम से और 'साधारण' को 'निगोद' लिखा है और कहीं पर 'प्रत्येक' व 'साधारण' ऐसे दो भेदों की मुख्यता न करके दोनों को ही वनस्पति सामान्य से कह दिया है। 'निगोद' के भी कुल हैं जो वनस्पति की २८ लाख कोटि में सम्मिलित हैं । यहाँ पर 'प्रत्येक' व 'साधारण' की कुल संख्या पृथक्-पृथक् नहीं कही है। -जं. सं. 28-6-56/VI/ र. ला. गेन, केकड़ी नित्यनिगोद को सात लाख योनि कैसे ? शंका-नित्य निगोद में सात लाख योनि किस अपेक्षा लिखी, जब कि नित्य-निगोद का मतलब है वहाँ से जीव अभी निकला ही नहीं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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