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________________ ५७८ ] [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थात भव्यों के मोक्ष के काल का नियम नहीं है। यदि सब कार्यों के लिये काल को हेतू मान लिया जावे (जब जिस कार्य का काल आवेगा तब ही वह कार्य होगा) तो प्रत्यक्ष और परोक्ष के विषयभूत कारणों से विरोध हो जाएगा। श्री स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा गाथा २१९ में भी कहा है कि पदार्थ में नाना प्रकार के परिणमन करने की शक्ति है। जिस शक्ति के अनुकूल बाह्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि मिलेंगे वैसा परिणमन हो जायगा, उसको रोकने में कोई भी समर्थ नहीं है। जैसे चावल में भात रूप परिणमन करने की शक्ति है कि इंधन अग्नि पतीली जल आदि प्राप्त करके ही वह चावल भात रूप पर्याय को प्राप्त होता है । १०-ज्ञेयों के परिणमन में केवलज्ञान कारण नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान का ज्ञेयों के परिणमन के साथ अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध नहीं है। सर्वज्ञ देव ने कहा है कि जो जिसका कारण होता है उसका उसके साथ अन्वयध्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। क्योंकि अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा ही कार्य-कारण-भाव सुप्रतीत होता है, अतः केवलज्ञान को ज्ञेयों के परिणमन के प्रति कारण मानना सर्वज्ञवाणी के विरुद्ध है। अंतरंग और बहिरंग निमित्तों के अनुसार ज्ञेयों अर्थात् पदार्थों का परिणमन हो रहा है। ज्ञेयों (पदार्थों) के परिणमन के अनुसार केवलज्ञान में परिणमन होता है, ऐसा उपदेश सर्वज्ञदेव ने दिया है जिसको आचार्यों ने आगम में गुथित किया है, जो इस प्रकार है"शेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भजत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया मात्रयेण परिणमति ।" (प्रवचनसार पृ० २५) अर्थ-ज्ञेय पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीन रूप से परिणमन करते हैं । उसी के अनुसार अर्थात् जैयों के परिणमन अनुसार ज्ञान भी जानने की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनरूप परिणमन करता है। येन येनोत्पावव्ययप्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्याकारणानीहितवृत्त्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति । ( बृहद द्रव्य संग्रह गाथा १४ टीका) अर्थ-ज्ञेय पदार्थ अपने जिस-जिस उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप से प्रति समय परिणमते हैं, उन-उनके जानने रूप बाकार से निरिच्छुक वृत्ति से (बिना इच्छा के ) सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है। "ण च गाणविसेसदुवारेण उपज्जमाणस्स केवलणाणं तस्स केवलणाणत्त फिट्टदि, पमेयवसेण परियत्तमाणसिद्धजीवणाणमाणंपि केवलणाणत्ताभावप्पसंगावो । (ज. ध. पु. १ पृ. ५१) अर्थात-यदि केवलज्ञान के अंश मतिज्ञानादि ज्ञान विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनमें केवलज्ञानत्व नहीं माना जा सकता है, तो प्रमेय के वश से सिद्ध जीवों के भी ज्ञानांशों में परिवर्तन देखा जाता है। अतः उन अंशों में केवलज्ञान नहीं बनेगा। पदार्थों के परिणमन के आधार से केवलज्ञान का परिणमन होता है इसलिये केवलज्ञान को पदार्थों की सहायता की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इन्द्रियादि की सहायता की आवश्यकता नहीं है। इसी बात को श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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