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________________ ५७६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व्यन्तर देवी-देवता को वीतराग सर्वज्ञदेव मानकर नहीं पूजना चाहिये, अथवा वीतराग सर्वज्ञदेव की पूजा के समान व्यन्तर देवी-देवता की पूजा नहीं करनी चाहिये । इस भाव को दृढ़ करने के लिये सम्यग्दष्टि विचार करता है कि मेरी भवितव्यता को व्यन्तरदेव तो टाल ही नहीं सकते, किन्तु इन्द्र और जिनेन्द्र भी टालने में असमर्थं हैं । जिस लक्ष्मी आदि को व्यन्तर देवादिक नहीं दे सकते उस लक्ष्मी को मैं अपने धर्मपुरुषार्थं द्वारा अवश्य प्राप्त कर सकता हूँ । सम्यग्दृष्टि के इन विचारों का विवेचन स्वामी कार्तिकेय की गाथा ३२०-३२१-३२२ में है- भत्तीए पुज्जमाणो वितरदेवो विदेदि जदि लच्छी । तो कि धम्मे कीरदि, एवं चितेइ सद्दिट्ठी ॥ ३२० ॥ जं जस्स जम्मि देसे, जेण विहारोण गावं जिषेण जियवं जम्मं वा अहव जम्मि कालम्मि । मरणं वा ॥ ३२१॥ तं तस्स तम्मि देसे, तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि । को सक्कड सारे, इंदो वा तह जिणिदो वा ॥ ३२२ ॥ यन्तर आदि की पूजा के निषेध को दृढ़ करने के लिये सम्यग्दष्टि जो विचार करता है उन विचारों का कथन इन उपर्युक्त तीन गाथात्रों में है, जैसा कि 'एवं चितेइ सद्दिट्ठी' गाथा ३२० के इन शब्दों से स्पष्ट होता है । सम्यग्दष्टि विचार करता है कि व्यन्तर आदि की पूजा या भक्ति करने से क्या लाभ क्योंकि वे प्रसन्न होकर मुझको लक्ष्मी आदि इष्ट पदार्थ नहीं दे सकते। यदि व्यन्तर आदि इष्ट या अनिष्ट कर सकते होते तो धर्मं करने की क्या आवश्यकता थी ! व्यन्तर आदि न मुझको मार सकते हैं और न जीवित कर सकते हैं। जिस समय मेरा जन्म या मरण, सुख दुःख होना होगा उसी समय होगा, उसको टालने में व्यन्तरदेव तो क्या, इन्द्र या जिनेन्द्र भी समर्थ नहीं हैं। वह सम्यग्दृष्टि अपने विचारों को दृढ़तम बनाने के लिये यह युक्ति भी देता है कि जैसा सर्वज्ञ ने जाना है वैसा ही होगा । सर्वज्ञज्ञान के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता । विचारणीय बात यह है कि ये गाथाएँ व्यन्तर देव की पूजा के निषेध को दृढ़ करने के लिये हैं या एकान्त नियतिवाद सिद्धान्त का उपदेश देने के लिए हैं ? Jain Education International यदि प्रकरण के अनुसार विचार किया जायगा तो यही कहना होगा कि इन गाथाओं का अभिप्राय मात्र व्यन्तरदेव आदि की पूजा का निषेध करना है, क्योंकि ३१८ में दोषसहित देव के मानने वाले को मिथ्यादृष्टि कहा है और गाथा ३१९ में कहा है कि व्यन्तर देवादि किसी जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकते और गाथा ३२० में भी व्यन्तरादि देवों की पूजा का निषेध है । यदि यह कहा जाय कि गाथा ३२१ व ३२२ में एकान्त नियति का उपदेश है तो उसमें अनेक दूषण आते हैं । जैसे १ – गाथा ३११-३१२ में तत्त्वों ( द्रव्य, पर्यायों ) का जो अनेकान्तरूप से श्रद्धान है उसको सम्यग्दर्शन कहा है । इन गाथाओं के विपरीत गाथा ३२१ व ३२२ में एकान्त नियति की श्रद्धा को यदि सम्यग्दर्शन कहा जायगा तो पूर्वापर विरोध का दोष आ जायगा । २- द्वादशांग के बारहवें अंग दृष्टिवाद में भी गौतमगणधर ने कहा कि जो यह मानता है कि 'जब, जैसे, जहाँ, जिस हेतु से, जिसके द्वारा जो होना है, तभी तैसे ही, वहाँ ही, उसी हेतु से, उसी के द्वारा वह होता है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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