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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५७५ इस सूत्र की टीका का यह अभिप्राय है कि पिता पुत्र का और पुत्र पिता का, आचार्य शिष्य का और शिष्य आचार्य का, स्वामी सेवक का और सेवक स्वामी का उपकार करते हैं। जो जीव दूसरे को सुखी करता है, दुःखी करता है, जिवाता है या मारता है, वह जीव भी उस जीव को बहुत बार सुखी करता है, दुःखी करता है, जिवाता है या मारता है। श्री पद्मपुराणादि प्रथमानुयोग में इसके अनेक दृष्टान्त हैं। यदि उनका उल्लेख किया जाय तो बहुत विस्तार हो जायगा । अतः प्रथमानुयोग के ग्रन्थों से देखने की कृपा करें। धी सर्वज्ञदेव ने जीवों का उपकार करने की प्रेरणा की है। रोगेण वा क्षुधाए, तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिट्ठा समणं साहु, पडिवज्जदु आदसत्तीए ॥२५२॥ (प्रवचनसार ) अर्थ-रोग से, क्षुधा से, तुषा से अथवा श्रम से प्राक्रान्त ( पीड़ित ) श्रमण को देखकर साधु अपनी .... शक्ति के अनुसार वैयावृत्यादि करो। यद्यपि स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३१९ में यह कहा है-एक जीव दूसरे जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता तथापि अन्य ग्रन्थों में यह कहा है और यही बात श्री कुन्दकुन्द भगवान ने प्रवचनसार में और श्री उमास्वामी आचार्य ने मोक्षशास्त्र में कही है। इस प्रकार परस्पर विरोधी ये दो उपदेश पाये जाते हैं। इन दोनों उपदेशों में से यदि कोई जीव किसी एक का सर्वथा पक्ष ग्रहण करके दूसरे को न माने तो वह गृहीत एकान्त मिथ्याइष्टि है और जो नयविवक्षा से दोनों उपदेशों को यथार्थ मानता है वह स्याद्वादी सम्यग्दृष्टि यदि ऐसा एकान्त माना जावे कि एक जीव दूसरे जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता तो जीवदया रूपी धर्म तथा द्रव्य-हिंसा के अभाव का प्रसंग आ जाएगा और इनके प्रभाव से बंध और मोक्ष का प्रभाव हो जाएगा। द्रयहिंसा न होती हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि समयसार गाथा २८३-२८५ में अप्रत्याख्यान और अप्रतिक्रमण द्रव्य और भाव से ( द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा ) दो प्रकार का कहा गया है। स्थितिकरण मंग का वर्णन करते हुए श्री स्वामी कार्तिकेय धर्म में स्थापना के द्वारा दूसरे के उपकार का मुपदेश देते हैं। धम्मावो चलमाणं, जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि । अप्पाणं पि सुविढयदि, ठिदिकरणं होदि तस्सेव ॥४२०॥ अर्थ-धर्म से चलायमान अन्य जीव को जो धर्म में स्थिर करता है तथा अपने को भी धर्म में दृढ़ करता है उसके स्थितिकरण गुण होता है। यदि कोई जीव गाथा ३१६ के कथन के अनुसार यह विचार कर कि कोई जीव दूसरे जीव का उपकार नहीं कर सकता, दूसरे जीव का स्थितिकरण न करे तो क्या वह सम्यग्दृष्टि हो सकता है ? इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की अनेकान्त इष्टि होती है। वह किसी अपेक्षा से गाथा ३१९-३२२ के कथन को भी सत्य मानता है और किसी अपेक्षा से इनके प्रतिपक्षी कथन को भी सत्य मानता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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