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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५६७ सद्वद्योदयेंतरङ्ग हेतो दुःखं बहिरंगे वातादिविकारे तत्प्रतिपक्षौषधोपयोगोपनीतेदुःखस्यानुत्पत्तेः प्रतीकारः स्यादिति चेत्, तहि सत्यपि कस्यचिदायुरुदयंतरंगे हेतौ वहिरंगे पथ्याहारादौ विच्छिन्ने जीवनस्याभावे प्रसक्ते तत्संपावनाय जीवनाधानमेवापमृत्योरस्तु प्रतीकारः । अर्थ-अकालमृत्यु के अभाव में आयुर्वेद की प्रमाणभूत चिकित्सा तथा शल्य चिकित्सा ( आपरेशन ) आदिक की सामर्थ्य का प्रयोग किस पर किया जावेगा ? क्योंकि चिकित्सा आदि का प्रयोग अकालमृत्य के प्रतीकार के लिये किया जाता है। शंका-चिकित्सा आदि का प्रयोग दुःख के प्रतिकार के लिये किया जाता है। अतः चिकित्सा की सामर्थ्य के प्रयोग के अभाव का प्रसंग नहीं आता। समाधान-जिस प्रकार चिकित्सा प्रादि के प्रयोग से दुःख की निवृत्ति होती है उसी प्रकार चिकित्सादि को सामर्थ्य के प्रयोग से अकालमृत्यु की निवृत्ति भी होती है, क्योंकि दोनों ( दुःख-अपमृत्यु ) के प्रतिकार के लिये चिकित्सा का प्रयोग देखा जाता है। शंका-आयुक्षय के निमित्त से अकालमरण होता है। ऐसे अकालमरण का निराकरण नहीं किया जा सकता। प्रतिशंका-साता वेदनीय कर्मोदय के निमित्त से दुःख होता है। ऐसे दुःख का भी निराकरण कैसे और किसके द्वारा किया जा सकता है ? प्रतिशंका का समाधान-असाता का उदय रूप अंतरंग कारण होते हए भी वातादि का विकार रूप बहिरंग कारण होने पर दुःख होता है। उस बहिरंग कारण के प्रतिपक्षभूत औषध का प्रयोग करने पर दुःख की उत्पत्ति नहीं होती। यही उसका इलाज है । शंका का समाधान-यदि आप ऐसा मानते हो तो किसी के आयु का उदय अन्तरंग कारण होने पर भी किन्त पथ्य आहार आदि के विच्छेद रूप बहिरंग कारण मिल जाने से जीवन के अभाव का प्रसंग आ जाता है। ऐसा प्रसंग आने पर जीवन की रक्षा करने के लिए जीवन के आधारभूत आहारादिक अकालमृत्यु के प्रतीकार हैं। . इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं-(१) बहिरंग कारणों से अकाल मरण होता है । (२) बहिरंग कारणों के प्रतीकार से अकाल मरण टल जाता है। अकालमरण का अनियत काल प्रश्न-अकालमरण का काल व्यवस्थित है, क्योंकि जिस समय जिसका मरण सर्वज्ञ ने. देखा है उसी समय उसका मरण होगा जैसाकि स्वामी कातिकेय ने गाथा ३२१-३२२ में कहा है। अतः बाह्य कारणों से न तो अकालमरण हो सकता है और बाह्य कारणों के प्रतिकार से अकालमरण टल भी नहीं सकता। व्यवहार से जिसको अकालमरण कहा जाता है निश्चय नय से वह भी कालमरण ही है, क्योंकि प्रत्येक जीव का मरण ध्यवस्थित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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