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________________ [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : इसका अभिप्राय यह है कि यदि प्रकोल मरण न माना जावे तो चिकित्सा शास्त्र में अकाल मरण के प्रतिकार का जो प्रयोग लिखा है वह व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि जब अकालमरण ही नहीं तो प्रतीकार किसका किया जावे? दया धर्म का उपदेश भी व्यर्थ हो जायगा। क्योंकि जब दूसरे के द्वारा कोई जीव मारा या बचाया नहीं जा सकता तो दया कैसे की जा सकती है ? किन्तु श्री कुन्दकुन्द भगवान ने दया का उपदेश स्वयं दिया है जो निम्न प्रकार है छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहि । कूरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुवं महासत्तं ॥ १३१॥ भावपाहुड़ अर्थ- हे मुनिवर ! तू मन वचन काय के योगनिकरि छह काय के जीवनि की दया कर, बहुरि छह अनायतन कू परिहर-छोड़ि। धम्मो दयाविसद्धो पव्वज्जा सध्वसंगपरिचत्ता। देवो ववगयमोहो उदयकरो भग्वजीवाणं ॥ २५ ॥ बोधपाहुड़ अर्थात-धर्म वही है जो दया करि विशुद्ध है। प्रव्रज्या ( दीक्षा ) वही है जो परिग्रह रहित है, देव वही है जिसके मोह नष्ट हो गया है। ये तीनों भव्य जीवों के कल्याण करने वाले हैं। जीवदया दम सच्चं अचोरियं बंभचेरसंतोसे। सम्मददसणणाणं तओ य सीलस्स परिवारो॥१८॥ शीलपाड़ अर्थ-जीवदया, इंद्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन ज्ञान तप ये सर्व शील ( स्वभाव ) के परिवार हैं। इन उपर्युक्त गाथाओं से तथा भावपाहुड़ की गाथा २५-२६ से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कन्वकन्द भगवान को स्वयं दूसरों द्वारा आय का हरा जाना तथा दूसरों के द्वारा मरण से रक्षा किया जाना इष्ट था। अत समयसार २४७-२६८ के अभिप्राय को प्रकरण अनुसार समझ कर एकान्त पक्ष का आग्रह नहीं करना चाहिये। समयसार, भाव पाहट, बोधपाहड़, शील पाहुए आदि में जो श्री कन्दकन्द भगवान के वाक्य हैं वे सर्व ही माननीय हैं। जो मात्र समयसार की कुछ गाथानों को मानते हैं और श्री कन्दकन्द के भी अन्य वाक्यों को नहीं मानते वे सम्यग्दष्टि नहीं हो सकते । प्रश्न-क्या अकालमरण टल भी सकता है ? . उत्तर-अकाल मरण के कारणों से बचना अथवा अकाल मरण के कारणों के मिल जाने पर उनके प्रतिकार के द्वारा अकाल मरण टल जाता है। जैसे सर्प आदि से दूर हट जाना जिससे वह काट ही न सके अथवा सर्प अादि के काट लेने पर विष के प्रतिकार द्वारा अकालमरण टल भी जाता है। श्री सर्वज्ञदेव के उपदेशानुसार श्री विद्यानन्दि महानाचार्य ने श्लोकवातिक भाग ५ पृ० २६८ में इस प्रकार कहा है तदभावे पुनरायुर्वेदप्रामाण्यचिकित्सितादिनां क्व सामोपयोगः दुःखप्रतीकारादाविति चेत् तथैवापमृत्युप्रतीकारादौ तदुपयोगोऽस्तु तस्योभयया दर्शनात् । न चायःक्षयनिमित्तोपमृत्यः कथं केनचित्प्रतिक्रियतां ? सत्यप्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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