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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५५७ हैं । ऐसे जीव पहाड़ से गिरकर, फांसी लगाकर, तालाब में डूब कर, विष खाकर मरने पर भवनत्रिक में पूर्वबद्ध देवायु के कारण उत्पन्न होते हैं। -ज.सं./17-1-57/VI/ ब. बा. हजारीबाग अकालमृत्यु और प्रात्मघात शंका-अकालमृत्यु एवं आत्मघात में क्या अन्तर है ? समाधान-कषायवश अपने प्राणों का घात करना आत्मघात है । आयुकर्म की स्थिति पूर्ण होने से पूर्व ही शेष निषेकों की उदीरणा होकर उदय में प्राकर मृत्यु का होना अकालमृत्यु है । आत्मघात के समय अकालमृत्यु भजनीय है। अकालमृत्यु के समय प्रात्मघात भजनीय है। --जै. सं./21-2-57/VI/ जु. म. दा. टूण्डला अविपाकनिर्जरा तथा अकालमरण में अन्तर शंका-अकाल मृत्यु का तथा अविपाक निर्जरा का लक्षण एक ही बताया जैसे विषशस्त्रादि से मृत्यु होना वह अकाल मृत्य है तथा पाल में देकर आम पकाना यह अविपाक निर्जरा है। परन्तु दोनों पदार्थ अत्यन्त भिन्न हैं, इसलिये इनके लक्षण भी भिन्न होने चाहिये। समाधान-प्रविपाक निर्जरा सम्यक तप के द्वारा होती है और संवर पूर्वक होती है। अकालमरण में पाय कर्म के अपकर्षण द्वारा उदीरणा होती है। विष, शस्त्र आदि का निमित्त मिलने पर कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यंच की आयु के निषेकों का अपकर्षण होकर उदीरणा हो जाती है और अनियत काल में मरण हो जाता है। __-जै. ग. /17-7-69/..../ रो. ला. जैन कदलीघात में स्थितिकाण्डकघात नहीं होता शंका-कदलीघात मरण में क्या स्थितिकाण्डकघात के द्वारा आयु की स्थिति कम होती है या अन्य प्रकार से कम होती है ? समाधान-कदलीघात मरण में स्थितिकाण्डकघात द्वारा आयु स्थिति कम नहीं होती है, किंतु अपकर्षण व उदीरणा द्वारा भुज्यमान आय का स्थितिघात होता है। __ सूक्ष्मएकेन्द्रिय के भी अकालमरण सम्भव है। शंका-सूक्ष्म कायिक जीवों का स्वरूप ऐसा बतलाया है कि वे अग्नि में जलते नहीं, किसी से रुकते नहीं तब तो उनका अकालमरण नहीं हो सकता है। श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्वार्थ सूत्र अध्याय २ सूत्र ५३ में उनका उल्लेख क्यों नहीं किया ? समाधान-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का भी अकाल मरण होता है। क्योंकि भय तथा संक्लेश परिणाम भी अकाल मरण के कारण हैं। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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