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________________ ५५६ । [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : एक मनुष्य या तिथंच की भुज्यमान आयु १०० वर्ष की थी। ४० वर्ष जीवित रहने के पश्चात संक्लेश आदि परिणामों के द्वारा या अधिक परिश्रम के द्वारा या किसी अन्य कारण से उसकी शेष आयु ६० वर्ष से कम हो गई, जैसे शेष आयु कम होकर ६० वर्ष की बजाय ५० वर्ष रह गई। उस मनुष्य या तियंच का जो ६० वर्ष की अवस्था में मरण होगा वह भी अकाल ( कदलीघात ) मरण है। कदलीघात मरण में शेष आयु घटकर अन्तमुहर्त तो रह जाती है, क्योंकि इस अन्तमुहर्त काल में परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होगा। परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध हो जाने के पश्चात् भुज्यमान शेष आयु का कदलीघात नहीं होता, किन्तु जितनी शेष आयु थी उतनी का ही वेदन करता है । कहा भी है "परविआउए बद्ध पच्छा भुजमाणाउअस्स कदलीघादो पत्थि जहासरूवेणचेव वेवेवित्ति।" (धवल १० पृ. २३७ ) अतः कदलीघात में स्वेच्छा का कोई नियम नहीं है। बाह्य कारणों से भुज्यमान आयु की स्थिति का ह्रास हो जाना कदलीघात है। -जै. ग. 29-1-76/VI/ज. ला. जैन, भीण्डर भुज्यमान प्रायु का घात करके अन्तर्मुहूर्त से अधिक भी शेष रखी जा सकती है शंका-अकालमृत्यु वाला जीव भुज्यमान आयु की शस्त्र आदि के लगने पर उदीरणा करता है या आयु का अपकर्षण करके भी उदीरणा करता है ? वह भुज्यमान आयु में पहिले भी अपकर्षण कर सकता है या नहीं? दृष्टान्त-एक मनुष्य १०० वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। साठ वर्ष बीत जाने पर उसने अपकर्षण द्वारा अपनी तीस साल आय कम करली तो क्या उसकी मृत्यु १० वर्ष पश्चात अर्थात ७० वर्ष की आयु में हो जावेगी? समाधान-कर्मभूमिज अचरमशरीरी मनुष्य व तिथंच भुज्यमान आयू का अपवर्तन करते हैं । विष, वेदना. रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश, आहारनिरोध, उच्छवासनिरोध आदि कारणों से उक्त जीवों के भुज्यमान आयु का छेद ( अपवर्तन अर्थात् ह्रास ) होता है। कहा भी है-'विस वेयण रत्तक्खय भय सत्थग्गहण संकिलेसेहि। आहारुस्सासाणं णिराहदो छिद्ददे आऊ ।' सुखबोध टीका में भी कहा है-'विषशस्त्रवेदनावि-बाह्यनिमित्त-विशेषेणापवय॑ते ह्रस्वीक्रियत इत्यपवयं अपवर्तनीयमित्यर्थः ।' इन उपर्युक्त प्रमाणों से ज्ञात होता है कि आयु को अपवर्ततित अर्थात् कम करने में मात्र शस्त्रघात व विष-भक्षण आदि ही कारण नहीं हैं, किन्तु संक्लेश परिणाम व वेदना भी कारण हैं। अतः संक्लेश व वेदना के द्वारा १०० वर्ष की आयू को लेकर उत्पन्न हआ जीव, साठ वर्ष बीत जाने पर तीस साल की आयु का अपवर्तन करके ७० वर्ष की आयुस्थिति कर सकता है और ऐसे जीव का मरण ७० वर्ष की आयु में हो जावेगा। इस सम्बन्ध में यद्यपि आगम प्रमाण नहीं मिलता फिर भी उपयुक्त आगम से तथा षट्खंडागम पुस्तक ६, पृ० १७० से ऐसा अभिप्राय ज्ञात होता है । यदि कहीं भूल हो तो विद्वान सुधार करने की कृपा करें। -णे.सं. 4-12-58/V/रा. दा. कराना क्या प्रात्मघाती देवगति प्राप्त करता है ? शंका-पहाड़ से गिरकर, फांसी लगा कर, तालाब में डूब कर, विष खाकर मरने वाला क्या स्वर्ग जा सकता है ? वरांगचरित्र में स्वर्ग जाना लिखा है ? समाधान-पूर्वबद्ध देवायु के कारण जो जीव भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिष देवों में उत्पन्न होते हैं उनके पूर्व भव में मरण के समय तथा देवों में उत्पन्न होने के समय कृष्ण, नील, कापोत तीन अशुभ लेश्या होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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