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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५४३ है-प्रशस्त तैजस और अप्रशस्त तैजस । उनमें अप्रशस्त निस्सरणात्मक तेजस्क शरीर समुद्घात बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तार बाला, सच्यंगल के संख्यातवें भाग मोटाई वाला, जपाकुसूम के सदृश लाल वर्ण वाला. भूमि और पर्वतादिक जलाने में समर्थ, प्रतिपक्षरहित, शेषरूप ईन्धनवाला, बायें कन्धे से उत्पन्न होने वाला और इच्छित क्षेत्र प्रमाण विसर्पण करने वाला होता है। जो प्रशस्त निस्सरणात्मक तेजस्क शरीर समुद्धात है वह भी विस्तार आदि में तो अप्रशस्त तैजस के ही समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंस के समान धवल वर्ण वाला है, दाहिने कन्धे से उत्पन्न होता है, प्राणियों की अनुकम्पा के निमित्त से उत्पन्न होता है और मारी, रोग आदि के प्रशमन करने में समर्थ होता है । जिनको ऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियों के आहारक समुद्घात होता है । यह एक हाथ ऊँचा, हंस के समान धवल वर्ण वाला, सर्वांग सुन्दर, क्षणमात्र में कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, अप्रतिहत गमन वाला, उत्तमांग अर्थात् मस्तक से उत्पन्न होने वाला, समचतुरस्र संस्थान से युक्त, सप्त धातुओं (रुधिर, मांस, मेदा आदि) से रहित, विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधानों से मुक्त, वज्र-शिला, स्तम्भ जल व पर्वत में से गमन करने में दक्ष होता है। ऐसे शरीर का शंका निवारण के लिए केवली के पादमूल में जाने का नाम पाहारक समुद्घात है। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलिसमुद्घात चार प्रकार का है। उनमें जिसकी अपने विष्कम्भ से कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्वशरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्वशरीर से तिगुने बाहल्यरूप दण्डाकार से केवली के जीवप्रदेशों का कुछ कम चौदह राजू फैलना वण्ड समुद्धात है। दण्ड समुद्घात में बताये गए बाहल्य और आयाम के द्वारा वातवलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र के व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान के जीवप्रदेशों का वातवलय से रुके हुए लोकक्षेत्र को छोड़ कर सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतरसमुद्घात है। धनलोकप्रमाण केवली भगवान के जीवप्रदेशों का सर्वलोक को व्याप्त करने को केवलिसमुद्घात कहते हैं। (धवल पु० ४ पृ० २६.२९) -जं. ग. 23-11-61/VII/............ शुभ लेश्याओं में भी वेदना, कषाय व मारणांतिक समुद्घात सम्भव हैं शंका-वेदना, मारणांतिक और कषाय ये समुद्घात अशुभ लेश्या वालों के ही होते हैं या शुभ लेश्या वालों के भी होते हैं ? समाधान-वेदना, कषाय, मारणांतिक समुद्घात शुभलेश्या वालों के भी होते हैं । कहा भी है "वेयण कसाय-वेउध्विय पदेहि तेउलेस्सिया तिण्डं लोगाणमसंखेज्ज भागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागे अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुरणे मारणंतियपदेण वि एवं चेव । वेयणकसायपदेहि पम्मलेस्सिया तिव्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । मारणंतिय-उववादेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । वेयणकसाय-वेउब्वियदंड-मारणंतियपदेहि सुक्कलेस्सिया चतुहं लोगाणमसंखेज्जविभागे।" ( धवल पु. ७ पृ. ३५८, ३५९, ३६० ) अर्थ-वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदों से तेजोलेश्यावाले जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाई द्वीप के असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, मारणान्तिक समुद्घातपद की अपेक्षा भी इसी प्रकार ही क्षेत्र है। वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात की अपेक्षा पद्मलेश्या वाले जीव तीन लोकों के असंख्यातवें भाग में और मारणांतिक समुद्घात व उपपाद पदों की अपेक्षा चार लोकों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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