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________________ ५०४ ] [ पं० रतन चन्द जैन मुख्तार : स्थिति अनुभाग काण्डक स्थितिकाण्डक घात एकेन्द्रिय भी करता है पर वह अविपाक निर्जरा नहीं करता शंका-संशी पचेन्द्रिय पर्याप्त मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने वाले जीव के पल्योपम के असंख्यातवभाग काल तक स्थितिकाण्डकों के द्वारा निर्जरा होती रहती है, यह अविपाकनिर्जरा है या नहीं ? समाधान-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध सत्तर कोडाकोडीसागर प्रमाण है । "मोहणीयस्स उक्कस्सओ दिदि बंधो सत्तरिसागरोवम कोडाकोडीओ" और एकेन्द्रिय जीवों में मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एकसागर प्रमाण है। "एइंदिएसु उक्कस्सओ ट्रिदिबंधो सागरोवमस्स सत्तभागाबे सत्तभाग।" जब एकसागर से अधिक कर्म स्थितिवाला जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है तो उसकी पूर्वोक्त अधिक स्थिति स्थितिकाण्डकों द्वारा खंडित होकर एकसागर प्रमाण हो जाती है। कहा भी है-"एइंदिय० अप्पद० उक्क० पलिदो असंखे. भागो।" (ज.ध. पु. ३५.१०२)। "अप्पदरकालभतरे चेव पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भागमेतदिदि-खंडयघादेहि अंतोकोडाकोडिदिदिसंतकम्मं धाविय सुहमणिगोदट्टिदिसत-समाणकरणहूँ।" (ध. पु.१० प०२९१ ) अर्थात् अल्पतर काल के भीतर पल्योपम के असंख्यातवेंभाग प्रमाण स्थितिकाण्डकघातों के द्वारा अन्तः कोटाकोटिप्रमाण स्थितिसत्त्व का घात करके उस सूक्ष्मनिगोद जीव की स्थितिसत्त्व के समान कर लेता है। "आगमदो णिज्जराए थोवात्ताभावावो।" (ध.१० १० १० २९२ ) उस अल्पतरकाल में कर्मास्रव की अपेक्षा निर्जरा का कम पाया जाना सम्भव नहीं है अर्थात् आस्रव की अपेक्षा निर्जरा अधिक होती है, क्योंकि अपकर्षित होकर पतित होने पर गोपुच्छायें स्थूल होकर निर्जरा को प्राप्त होने लगती हैं । ओववूिण पविवेसु गोउच्छाओ पूला होदूण णिज्जरेति । (घ० १० १० २९३ ) इससे यह ज्ञात हो जाता है कि उस जीवके स्थितिकाण्डकों द्वारा मात्र द्रव्य निर्जरा होती है, किंतु उदयागत कर्मों के अनुभाग में कमी नहीं होती। अतः यह अविपाकनिर्जरा नहीं है। अविपाकनिर्जरा तो करणलब्धि से पूर्व सम्भव नहीं है। करण, सम्यक्त्व व संयम परिणामों के द्वारा जो निर्जरा होती है वह अविपाकनिर्जरा है। एकेन्द्रिय के ये परिणाम सम्भव नहीं हैं अतः उसके अविपाकनिर्जरा नहीं होती है। -जे. ग. 19-9-74/X/1. ला. गैन, भीण्डर स्थितिकाण्डक विधान शंका-काण्डकघात का क्या अर्थ है ? समाधान-काण्डक' का अर्थ खण्ड, अंश, पौरी का है । घात का अर्थ खरौचना, मार डालना है। कर्मों की स्थिति या अनुभाग के उपरिम अंश, खण्ड या पौरों को खरौंचकर नष्ट कर देने को स्थितिकाण्डकघात या अनुभागकाण्डकघात कहते हैं। प्रत्येक स्थितिकाण्डकघात के द्वारा कर्मों का स्थितिसत्त्व कम हो जाता है और प्रत्येक अनुभागकाण्डकघात के द्वारा कर्मों का अनुभागसत्त्व घात होकर कम रह जाता है। -जै.ग. 14-8-69/VII/ कमला जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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