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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] समाधान-अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना सम्यग्दृष्टिजीव चौथे से सातवें तक किसी भी गुणस्थान में कर सकता है। -जे.ग.30-11-67/VIII/ कंवरलाल अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना क्यों ? शंका-चार अनन्तानुबन्धीकषाय और तीन दर्शन मोहनीयकर्म इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम तथा क्षय से उपशमसम्यग्दर्शन, क्षयोपशमसम्यग्दर्शन और क्षायिकसम्यग्दर्शन होता है फिर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की क्या आवश्यकता है ? समाधान-पररूप से प्राप्त होकर कर्म के निःसत्त्व हो जाने पर जिस कर्म की पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस कर्म के विनाश को क्षपणा कहते हैं। जिस प्रकार पाठकषायों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु उस प्रकार अनन्तानुबन्धी की पुनः उत्पत्ति न होती हो, यह बात तो है नहीं, परिणामों के वशसे सासादन प्रादिक में इसका पुनः सत्त्व पाया जाता है, अतः अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना होती है । ( जयधवल पु. ३ पृ. २४६, पु. ४ पृ. ११ व २४; पु. ५ पृ. २०७-२०८ ) जिसने दर्शनमोहनीयकर्म का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व या सासादनगुणस्थान को प्राप्त नहीं होता, अतः उसके अनन्तानुबन्धीकषाय का पुनः सत्त्व नहीं पाया जाता है। -. ग. 7-8-67/VII/ शांतिलाल अनन्तानुबन्धी के सत्त्व बिना १६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्वी रह सकता है शंका-कषायपाहुड पु० ४ पृ० २०६ पर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना के पश्चात् पुनः उसके संयुक्त होने में सबसे अधिक काल कुछ कम १३२ सागर लगता है। एक जीव क्या इतने काल तक अनन्तानुबन्धी का विसंयोजक रह सकता है ? समाधान-कोई मिथ्यादृष्टिजीव वेदकसम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना कर देता है। पुनः वेदकसम्यक्त्व के साथ कुछ कम ६६ सागर तक रहा, एक अन्तमुहर्त के लिये सम्यग्मिथ्याष्टि हो गया, फिर कर कुछ कम ६६ सागर तक सम्यग्दृष्टि बना रहा। फिर गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया और अनन्तानुबन्धीकषाय का बंध व संयोजना करली। ऐसा जीव कुछ कम दो ६६ सागर अर्थात् कुछ कम १३२ सागर तक अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना वाला रह सकता है। (षट्खण्डागम पु० ५, पृ० ६ व कषायपाहुड पु० ५ पृ० २६९ ) -नं. सं. 4-2-58/V/ अ. रा. म. ( आ. श्री शिवसागरणी संघस्थ ) (१) अनन्तानुबन्धी प्रादि चारों कषायों में दारु, अस्थि व शैलरूप स्पर्धक हैं (२) देशघाती स्पर्ध कोदय में भी प्रायुबन्ध सम्भव है शंका-शास्त्रों में कषाय के ४ भेव किये हैं अनन्तानुबन्धी आदि की अपेक्षा से और शक्ति को अपेक्षा से शिला, पृथ्वी, धूलि, जल ये ४ भेव किये हैं कई विद्वान इनको क्रमशः अनन्तानुबन्धी आदि के उदाहरण के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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