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________________ ५०० ) [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । श्री वीरसेनआचार्य ने विसंयोजना का लक्षण तथा विसंयोजना व क्षपणा का अन्तर बतलाते हए जयधवल में निम्न प्रकार लिखा है "का विसंजोयणा? अणंताणुबंधिचउक्कक्खंधाणं परसरूवेणा परिणमणं विसंयोजणा। ण परोदयकम्मक्खवणाए वियहिचारो, तेसि परसरूवेण परिणदाणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो।" ( जयधवल पु २ पृ २१९) अर्थ-विसंयोजना किसे कहते हैं ? अनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्कन्धों को पर प्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसंयोजना कहते हैं। विसंयोजना का इस प्रकार लक्षण करने पर जिन कर्मों की परप्रकृति के उदयरूप से क्षपणा होती है उनके साथ व्यभिचार ( अतिव्याप्ति ) आ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी को छोडकर पररूप से परिणत हए अन्य कर्मों की पुन: उत्पत्ति नहीं पाई जाती है। अतः विसंयोजना का लक्षण अन्य कों की क्षपणा में घटित न होने से अतिव्याप्ति दोष नहीं पाता है। "कम्मंतरसरूवेण संकमिय अवठ्ठाणं विसंजोयणा, गोकम्मसरूवेण परिणामो खवणा त्ति अस्थि दोहं पि लक्खणभेदो। ण च अणंताणुबंधीणं व संछोहणाए वि गट्ठासेसकम्माणं विसंजोयणं पडि भेदाभावादो पुणरुप्पत्ती, आणपुथ्वीसंकमवसेण लोभभावं गंतूण अकम्मसख्वेण परिणमिय खवणभावमुवगयाणं पुणरुप्पत्तिविरोहादो । अणंताणबंधीण व मिच्छत्सादीणं विसंजोयण-पयडिभावो आइरिएहि किण्ण इच्छिज्जवे ? ण, विसंजोयणभावं गंतूण पुणो णियमेण खवणभावमुवणमंति त्ति तत्थ तवणुग्भुवगमादो। ण च अणंताणुबंधीसु विसंजोइदासु अंतोमुत्तकालभंतरे तासिमकम्मभावगमणणियमो अस्थि जेण तासि विसंजोयणाए खवणसण्णा होज्ज । तदो अणंताणु-बंधोणं व सेसविसंजोइद पयडीणं ण पुणरुप्पत्ती अस्थि त्ति सिद्ध।" (जयधवल पु. ५ पृ. २०७-२०८ ) अर्थ-किसी कर्म का दूसरे कर्मरूप संक्रमण करके ठहरे रहना विसंयोजना है। और कर्म का नोकर्म अर्थात कर्माभावरूप से परिणमन होना क्षपणा है। इस प्रकार दोनों के लक्षणों में भेद है। यदि कहा जाय कि प्रदेश क्षेपण से नष्ट हुए अशेष कर्मों में विसंयोजना के प्रति कोई भेद नहीं है अतः मनन्तानुबन्धी की तरह उन कों की भी पूनः उत्पत्ति हो जायगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि संक्रमण के कारण लोभपने को प्राप्त नोकर प्रकर्मरूप से परिणमन करके नष्ट हई उन प्रकृतियों की पून: उत्पत्ति होने में विरोध है। यदि कहा जाय पतानबन्धी की तरह मिथ्यात्वादि प्रकृतियों को भी प्राचार्यों ने विसंयोजना प्रकृति क्यों नहीं माना? तो सीका करना ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वादि प्रकृतियाँ विसंयोजनपने को प्राप्त होकर अनन्तर नियम से भयवस्था को प्राप्त होती हैं, इसलिये इनमें विसंयोजनपना नहीं माना गया। किंतु अनन्तानबन्धी कषायों का विसंयोजन होने पर अन्तर्मुहूर्तकाल के भीतर उनके प्रकर्मपने को प्राप्त होने का नियम नहीं है जिससे कि विसंयोजना की क्षपणा संज्ञा हो जाय । अतः अनन्तानुबन्धी की तरह शेष विसंयोजित प्रकृतियों की पुनः उत्पत्ति नहीं होती यह सिद्ध हुआ। "तेसि पुणरुपज्जमाणसहावाणं खीण सविरोहादो।" ( जयधवल पु. ५ पृ. २४४ ) अर्थ -क्योंकि अनन्तानुबन्धी पुनः उत्पन्न स्वभाववाली है अतः उन्हें क्षीण मानने में विरोध भाता है। -जे. ग. 12-10-67/VII/शान्तिलाल अनन्ता० विसंयोजना का स्वामी शंका-अनन्तानुबन्धी को विसंयोजना किस गुणस्थान में होती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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