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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४८३ "उपचारितासभूतव्यवहारेरणेष्टनिष्टपंचेन्द्रियविषयजनितसुखदुःखं भुक्ते । शुद्ध निश्चयनयेन तु परमात्म स्वभावसम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्दैकलक्षणं सुखामृतं भुंक्त इति ।" ( बृहद द्रव्यसंग्रह गाथा ९ की टीका) अर्थ-उपचरितअसद्भूत व्यवहारनय से इष्ट, अनिष्ट पांच इंद्रियों के विषयों से उत्पन्न सुख दुःख को भोगता है । शुद्धनिश्चयनय से तो परमात्म-भाव के सम्यकश्रद्धान-ज्ञान-पाचरण से उत्पन्न अविनाशी आनन्दरूपवाले सुखामृत को भोगता है। इसप्रकार नविकल्पों के द्वारा आत्मा के धर्मों को जान लेने पर अन्तरायकर्म का ज्ञान हो जाता है। -. ग. 6-12-65/VII/ 2. ला. जैन, मेरठ 'दूसरों को उपहास का पात्र बनाना' मान कषाय का कार्य है - शंका-हास्यप्रकृति के उदय का कार्य हास्य उत्पन्न करना है या उपहास का पात्र बनाना है ? यदि हास्य उत्पन्न करना है तो उपहास का पात्र बनाना किस कर्म के उदय का फल है ? दूसरे, हास्य के आस्रव के हेतुओं से तो ऐसा लगता है कि हास्यप्रकृति के उदय का कार्य उपहास का पात्र बनाना ही होना चाहिये ? समाधान-आर्ष ग्रन्थों में हास्यप्रकृति का कार्य निम्न प्रकार बतलाया है "जिस कर्मस्कन्ध के उदय से जीव के हास्यनिमित्तक राग उत्पन्न होता है, उस कर्मस्कंध की 'हास्य' यह संज्ञा है ।" ( धवल पु. ६ पृ. ४७ ) "जिसके उदय से हास्य का आविर्भाव होता है वह हास्यप्रकृति है।" ( रा. वा. ८।९।४ ) "जिसके उदय से उत्सुक होता हुआ हास्य प्रकट हो वह हास्यकर्म है।" ( हरिवंशपुराण ५८।२३५ ) गो० क० गाथा ७६ की टीका में हास्यप्रकृति का नोकर्म विटंवरूप भूत व बहुरूपिया व हंसने के पात्र इत्यादिक हैं । इनके निमित्त से हास्यप्रकृति का उदय होता है। बहुत जोर से हंसना, दीन पुरुषों को देखकर हास्य करना, अशिष्टवचन प्रयोग से हंसना, बहुत बोलने से हँसना, ये सब हास्यवेदनीयकर्म के प्रास्रव के हेतु हैं । ( रा. वा. ६।१४।३ ) धर्म का उपहास आदि करने से हास्यरूप स्वभाव का होना, हास्य-प्रकषायवेदनीय के आस्रव का कारण है । ( हरिवंश पुराण ५८९९) इन पार्षग्रन्थों से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि हास्यप्रकृति के उदय का कार्य दूसरों को उपहास का पात्र बनाना नहीं है, किंतु ये हास्य के उदय का नोकर्म है अथवा हास्य के प्रास्रव का कारण है। मानकषाय के उदय में दूसरों को उपहास का पात्र बनाकर उसको नीचे दिखाने के भाव हो सकते हैं। अतः यह मान कषायोदय का कार्य हो सकता है। -णे. ग. 20-6-68/VI/........ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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