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________________ ४८२ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : समाधान-कषाय चार प्रकार की हैं-१. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ । इन चारों में से प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार-चार प्रकार की हैं। इसप्रकार कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं। इन सोलह कषायों का एक साथ उदय नहीं हो सकता, क्योंकि जिस समय क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी एक कषाय का उदय होता है उस समय अन्य तीन क होता है। अर्थात् जब क्रोध का उदय होगा तो मान, माया, लोभ का उदय नहीं होगा। जब मान का उदय होगा उस समय क्रोध, माया, लोभ का उदय नहीं। जिसके अनन्तानुबन्धीक्रोध का उदय है उसके अप्रत्याख्यानावरण. प्रत्याख्यानावरण, और संज्वलन क्रोध का उदय अवश्य होगा, क्योंकि उसके देशव्रत, महाव्रत तथा यथाख्यातचारित्र का प्रभाव पाया जाता है जो कि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के उदय का कार्य है। ऐसा नहीं है कि केवल अनन्तानुबन्धीक्रोध का उदय हो और अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलनक्रोध का उदय न हो। अप्रत्याख्यानावरणक्रोध के उदय में प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनक्रोध का उदय अवश्य होगा किंत अनन्तानुबन्धी क्रोध का उदय भजितव्य है अर्थात् उदय हो और न भी हो। प्रत्याख्यानावरणक्रोध के उदय में संज्वलन का उदय अवश्य होगा, किंतु अनन्तानुबन्धी व अप्रत्याख्यानावरणक्रोध का उदय भजितव्य है। संज्वलनक्रोध के उदय में शेष अनन्तानुबन्धी आदि तीन का उदय होना भजितव्य है। इसीप्रकार मान, माया व लोभ के विषय में जानना चाहिये। -जं. ग. 17-5-62/VII/ रामदास कराना दानान्तरायादि से घातित प्रात्म-गुणों का विचार शंका-अन्तरायकर्म की दान, लाभ, भोग, उपभोग ये प्रकृतियां आत्मा के कौन से गुणों की घातक हैं। इन प्रकृतियों के क्षयोपशम से प्राप्त लब्धियां आत्मा में क्या कार्य उत्पन्न करती हैं ? यह कार्य आत्मा का गुण कैसे कहा जा सकता है? समाधान-जो दो पदार्थों के अन्तर अर्थात् मध्य में आता है वह अन्तरायकर्म है "अन्तरमेति गच्छति दयोः इत्यन्तरायः।" । धवल पुस्तक ६ पृ० १३) वह अन्तरायकर्म दान, लाभ, भोग और उपभोग आदिकों में विघ्न करने में समर्थ है। दान आदि का स्वरूप इसप्रकार है "रत्नत्रयवदभ्यः स्ववित्तपरित्यागो वान रत्नत्रयसाधन दित्सा वा । अभिलषितार्थप्राप्तिामः । सकभुज्यते इति भोगः गन्ध-ताम्बूल-पुष्पाहारादिः। परित्यज्य पुनर्भुज्यत इति परिभोगः स्त्री-वस्त्राभरणादिः। वीर्यः शक्तिरित्यर्थः। ऐतेषां विघ्नकृदन्तरायः।" (धवल १३ पृ० ३८९) अर्थ-रत्नत्रय से युक्त जीव के लिये अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने का नाम दान है। अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होना लाभ है। जो एक बार भोगा जाय वह भोग है। यथा गंध. पान, पुष्प और आहार आदि। छोड़कर जो पुनः भोगा जाता है वह उपभोग है। यथा स्त्री, वस्त्र, आभरण आदि। वीर्य का अर्थ शक्ति है। इनकी प्राप्ति में विघ्न करनेवाला अन्तरायकर्म है। त्याग, लाभ, भोग, उपभोग और वीयं आत्मा के धर्म हैं। समस्त जीवों के प्रति अभयदान, रत्नत्रय का लाभ अपनी पर्याय का अथवा अपने भावों का भोग अपने गुणों का अथवा अपनी व्यंजनपर्याय का उपभोग और वीर्य ये आत्मा के निश्चय नय की अपेक्षा से धर्म हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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