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________________ ४६८ 1 [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : अभव्यों के दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोग का काल एक-एक अन्तर्मुहूर्त है, किन्तु क्षायोपशमिक दर्शन व ज्ञान का काल अनादि अनन्त है। -जं. ग. 26-2-76/VIII/ ज. ला. गैन, भीण्डर बन्धन व संघात के कार्यों में अन्तर शंका-संघात नामकर्म व बंधन नामकर्म के कार्यों में क्या अन्तर है? समाधान-औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से जो औदारिक आदि वर्गणा आई उन नवीन प्रौदारिक आदि शरीरवर्गणाओं का जीव के साथ बँधी हुई पूर्व शरीरवर्गणाओं के साथ परस्पर संश्लेष संबंध प्राप्त होता है, वह शरीरबंधन नामकर्म है । वह बंधन दो प्रकार का हो सकता है, एक छिद्र सहित जैसे तिल का मोदक, छलनी, धोत्तर, कपड़ा इत्यादि, दूसरा बंध छिद्ररहित होता है जैसे कांच आदि । निम्न प्रमाण देखने योग्य है। "शरीरनामकर्मोदय वशादुपात्तानां पुद्गलानामन्योन्यप्रदेश संश्लेषणं यतो भवति तहबन्धननाम । यदुदयादौदारिकादि शरीराणां विवरविरहितान्योऽन्य प्रवेशानुप्रवेशेन एकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम ।" ( सर्वार्थसिद्धि ८११)। "जस्स कम्मस्स उदएण ओरालिय सरीर परमाणु अण्णोणपेण बंधमागच्छंति तमोरालिय शरीर बंधणंणाम। एवं सेस सरीरबंधणाणं पि अत्थो वत्तव्यो।" (धवल पु० ६ पृ० ७०)। "जस्स कम्मस्स उदएण ओरालिय सरीरक्खंधाणं सरीरमाधमुवगयाणं बंधणणाम कम्मोदएण एगबंधणंबद्धाण महत्त होवि तमोरालियसरीर संघादं णाम । एवं सेस सरीरसंघादाणं पि अत्थो वत्तव्यो।" (धवल पु. ६ पृ.७०)। "जस्स कम्मस्स उदएण जीवेण संबद्धाणं वग्गणाणं संबंधो होदितं कम्म सरीरबंधणणाम। जस्स कम्मस्स अखण अण्णोषणसंबद्धाणं वग्गणाण मद्रत तं सरीर संघावणामं, अण्णहा तिलमोअओ व्व विसंहल सरीरं होज्ज ।" (ध० १३ पृ० ३६४ )। -जं. ग. 16-3-78/VIII/ र. ला. जैन, मेरठ ज्ञानावरणीय तथा मोहनीय में अन्तर शंका-हित-अहित की परीक्षा का न होना ही मोह है । मोह ही अज्ञान है । इस हो का समस्त कर्मों पर आवरण पडा हआ है। ज्ञानावरणकर्म के उदय में भी हित-अहित की परीक्षा का अभाव हो जाता है। अतः ज्ञान पर आवरण करना मोह का ही कार्य है। ज्ञानावरणकर्म और मोहनीयकर्म दोनों एक हैं या कुछ अन्तर है? समाधान-ज्ञान का स्वरूप इसप्रकार है जाणइ तिकाल-सहिए वव्वगुणं पज्जए बहुभेए । पच्चक्खं च परोक्खं अपेण णाणे त्ति णं वेति ॥२९९॥ ( गो० जी० ) अर्थ-जिसके द्वारा त्रिकाल विषयक समस्त द्रव्य, उनके गुण और उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से जाने वह ज्ञान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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