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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] प्रश्न- -उपर्युक्त हेतु ( जीव की परतन्त्रता में कारणता ) क्रोधादि के साथ व्यभिचारी है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि क्रोधादि जीवके परिणाम हैं और इसलिये वे परतंत्रतारूप हैं, परतत्रता में कारण नहीं हैं। प्रकट है कि जीव का क्रोधादि परिणाम स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रता का कारण नहीं । अतः उक्त हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचारी नहीं है । [ ४६१ प्रश्न- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातियाकर्म ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यरूप जीवके स्वरूप के घातक होने से परतन्त्रता के कारण हो सकते हैं। नाम, गोत्र, वेदनीय और प्रायु ये चार अघातिकर्म परतन्त्रता के कारण नहीं हैं, क्योंकि वे जीव के स्वरूपघातक नहीं हैं । श्रतः उनके परतन्त्रता की कारणता प्रसिद्ध है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि नामादि अघातिकर्म भी जीव के स्वरूप सिद्धपने के प्रतिबंधक हैं और इसलिए उनके भी परतन्त्रता की कारणता उत्पन्न है । यदि वह आत्मा की पराधीनता का कारण नहीं है तो वह कर्म नहीं हो सकता, अन्यथा अतिप्रसङ्ग दोष श्रावेगा । अर्थात् कर्म वही है जो आत्मा को पराधीन बनाता है, यदि आत्मा को पराधीन न बनाने पर उसको कर्म माना जाय तो जो कोई पदार्थ कर्म हो जायगा । जिसने इसप्रकार कर्म का यथार्थ स्वरूप समझ लिया है उसके उपदेश में प्रामाणिकता अवश्य होगी । यदि ऐसा न माना जाय तो भी अहंत भगवान के उपदेश को भी अप्रामाणिकता का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि श्रायुकर्म की पराधीनता से वे स्वयं शरीर में रुके हुए हैं और उन्होंने ही कर्मपराधीनता का उपदेश दिया है । जिनकी समझ जिन-वचनानुसार नहीं है, किन्तु मनघडंत है उनका उपदेश प्रामाणिक नहीं हो सकता, क्योंकि वे स्वयं, रागी, द्वेषी, अज्ञानी और परिग्रहवान हैं । प्रत्येक द्रव्य सर्वथा स्वतंत्र नहीं है, किन्तु द्रव्यार्थिकनय से स्वतंत्र और पर्यायार्थिकनय से परतंत्र है । sofiate से द्रव्य नित्य है और पर्यायार्थिक नय से द्रव्य अनित्य है अर्थात् उत्पाद व्यय सहित है । और उपजना, 'विनशना एक ही के आप ही ते अन्य कारण विना होय नाहीं । कहा भी है "नैकं स्वस्मात् प्रजायते ।" ( आप्तमीमांसा कारिका २४ ) पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में भी कहा है --- इसीप्रकार श्री "उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: मृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् । " ( ५।३० ) अर्थ - अंतरंग और बहिरंग निमित्त के वश से जो नवीन प्रवस्था की प्राप्ति होती है वह उत्पाद है । जैसे मिट्टी के पिंड अन्तरंग कारण और दण्ड, चक्र, चीवर, कुलाल आदि बहिरंग कारणों के घटपर्याय का उत्पाद होता । प्रमेयरत्नमाला में भी कहा है "तत्रान्यानपेक्षत्वं तावदसिद्धम्, घटाद्यभावस्य मुङ्गरादिव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् तत्कारणत्वोपपत्तेः । कपालाविपर्यायान्तरभावों हि घटावेरभावः । " ( पृ० २६६ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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