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________________ ४६० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : स्फटिकमरिण आप तो केवल एकाकार शुद्ध ही है, परन्तु जब पर-द्रव्य की ललाई आदि का डंक लगे तब स्फटिकमणि ललाई आदिरूप परिणमती है । ऐसा यह वस्तु का ही स्वभाव है, इसमें अन्य कुछ भी तक नहीं। श्री परमात्मप्रकाश में भी कहा है "दुक्खु वि सुक्खु बि बहु विहउ जीवहं कम्मु जरणेइ।" अर्थ-जीवों के अनेक तरह के सुख और दुख दोनों ही कर्म उपजाता है। * अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयह वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि ऐइ ॥६६॥ ( अधि० १५०प्र०) अर्थ-यह प्रात्मा पंगु के समान है, आप न कहीं जाता है न पाता है। तीनों लोक में इस जीव को कर्म ही ले जाता है और कर्म ही ले आता है । श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी प्रवचनसार में कहा है कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण । अभिभूय परं तिरियं रणेरइयं वा सुरं कुणदि ॥११७॥ अर्थ-'नाम' संज्ञावाला कर्म अर्थात् नामकर्म अपने कर्मस्वभाव से प्रात्मस्वभाव का पराभव करके प्रात्मा को मनुष्य, तियंच, नारकी या देवरूप कर देता है। -जं. ग. 2-5-66/IX/प्रेमचन्द (१) जीव के क्रोधादि परिणाम परतन्त्रतारूप हैं (२) जो जीव को परतन्त्र करे उसे कर्म कहते हैं (३) प्रत्येक द्रव्य कथंचित् स्वतंत्र है, कथंचित् परतन्त्र शंका-आपने लिखा है कि क्षपकश्रेणी के वशम गुणस्थान में होनेवाले कर्मोदय का और आत्मा के भावों कापरस्पर डिग्री ट-डिग्री ( Degree to degree ) निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । अब प्रश्न उठता है कि जिसकी समझने स्वयं निःशंक होकर डिग्री टू डिग्री कर्माधीनता स्वीकार ली, उसको समझ पराधीन होने से, उसके उपदेश की प्रामाणिकता कैसे ? समाधान-जिसने कर्मोदय का यथार्थ स्वरूप समझ लिया उसका उपदेश अप्रामाणिक कैसे हो सकता अर्थात अप्रामाणिक नहीं हो सकता। कर्म का स्वरूप श्री विद्यानन्दस्वामी ने आप्त-परीक्षा कारिका ११४११५ की टीका में निम्न प्रकार कहा है "जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं।" द्रव्यकर्म मूल प्रकृतियों के भेद से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का है तथा उत्तरप्रकृतियों के भेद से १४८ प्रकार का है. तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक प्रकार का है और वे सब पुद्गल परिणामात्मक है, क्योंकि वे जीव की परतन्त्रता में कारण हैं; जैसे निगड आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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