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________________ ४४४ ] [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : अर्थ-कर्मों की अपने कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति का नाम अनुभाग है। "पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ।" ( गो० क० गाथा ६ ) अर्थ-वृद्गलपिंडरूप द्रव्यकर्म में फल देने की जो शक्ति है वह भावकर्म अर्थात् अनुभाग है। "कम्मदव्वंभावो णाणावरणाविदश्वकम्माणं अण्णाणादिसमुप्पायण सत्ती।" ( धवल पु० १२ पृ० २) अर्थ-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों की अज्ञानादि को उत्पन्न करनेरूप शक्ति है वह कर्मद्रव्य भाव अर्थात् द्रव्यकर्म का अनुभाग कहा जाता है। -जें. ग. 3-12-70/X/रो. ला. मित्तल उदय चोर को ताले खुले मिलना प्रादि पुण्योदय से संभव है, पर वह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है शंका-कसाई को छुरी मिलना, चोर को ताले खुले मिलना, वेश्यागामी को वेश्या मिलना, शराबी को शराब मिलना पाप का फल है कि पुण्य का ? इसी प्रकार परिग्रह की सामग्री धन संपदा, राज्य वैभव और अधिक स्त्रियों का होना पाप का फल है कि पुण्य का ? जब चारों व्रतोंकी सामग्री पाप का फल है तो परिग्रह भी (पांचवां भी ) पाप का ही फल होना चाहिये। समाधान-कसाई को छरी मिलना, चोर को ताला खुला मिलना, वेश्यामामी को वेश्या का मिलना, शराबी को शराब मिलने से सुख का अनुभव होता है अतः इन सामग्रियों के मिलने में सातावेदनीय का उदय व अन्तरायकर्म का क्षयोपशम कारण है। कहा भी है 'दुःख उपशमन के कारणभूत सुद्रव्यों के सम्पादन में सातावेदनीयकर्म का व्यापार होता है।' (१० ख० पु० ६ पृष्ठ २६ ) । दुःख के प्रतिकार करने में कारणभूत सामग्री के मिलानेवाला और दुःख के उत्पादक कर्मद्रव्य की शक्ति का विनाश करनेवाला कर्मसातावेदनीय कहलाता है (ब० खं० पु० १३ पृ० ३५७ ) । 'दुःखोपशान्ति के कारणभूत द्रव्यादि की प्राप्ति होना, इसे सुख कहा जाता है। उनमें वेदनीयकर्म निबद्ध है, क्योंकि वह उनकी उत्पत्ति का कारण है । ( १० ख० पु० १५ पृष्ठ ६)। यह कथन देव की मुख्यता से है, किन्तु पुरुषार्थ की मुख्यता से इससे भिन्न कथन है वह भी विचारणीय है । यह पापानुबंधी पुण्य कर्म है, क्योंकि जिसके उदय होने से जीव की प्रवृत्ति पापकर्म में हो उसे पापानुबंधी पुण्य कर्म कहते हैं। परिग्रह की सामग्री, धन, संपदा, राज्यवैभव और अधिक स्त्रियों का होना यदि दुःखोत्पत्ति के कारण हैं तो उनके मिलने में असातावेदनीय को भी और यदि उनसे सुखोत्पत्ति होती है तो उनके मिलने में सातावेदनीय को भी कारण कह सकते हैं, किन्तु प्रत्येक सामग्री के मिलने में सातावेदनीय या असातावेदनीय का उदय निमित्त कारण हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि सुख और दुःख का वेदन कराना ( मोहनीय की सहायता से ) वेदनीयकर्म का कार्य है। पुरुषार्थ द्वारा भी सामग्री की प्राप्ति देखी जाती है। एक ही समय में एक ही सामग्री एक को दुःख का अनुभव कराने में कारण है और दूसरे को सुख का अनुभव कराने में कारण है। एक ही जीव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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