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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] तेवीसं पणुवीसं इथ्वीसं अट्टवीसमुगुतीसं । तीसेक्तीसमेगं बंधद्वाणाणि णामस्स ॥ ५२ ॥ ( प्रा. पं. सं. पृ ३३५ ) नामकर्म के प्राठ बंधस्थान हैं - ३१, ३०, २९, २८,२६, २५, २३ और एक प्रकृतिक । इनमें ३१ प्रकृतिबन्ध नामकर्म का सर्वबन्ध है और शेष नोसर्वबन्ध है । [ ४४३ ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ शंका- प्राकृतपंचसंग्रह पृष्ठ २८६ पर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में १७ प्रकृतियों का ध्रुवबन्ध व अध्रुव बन्ध कहा है। दसवेंगुणस्थानवाला जीव भव्य ही होता है । भव्य के ध्रुवबन्ध होता नहीं है । मात्र अभव्य के होता है (देखो धवल पु० ८ पृ० २१) फिर बसवें गुणस्थानवाले के बबन्ध कैसे संभव है ? - जै. ग. 1-4-76 / VIII / र. ला. जैन समाधान - धवल पु०८ में ध्रुवबन्ध और अध्रुवबन्ध की जो विवक्षा है वह विवक्षा पंचसंग्रहग्रंथ पृ० २८६ पर नहीं है । पंचसंग्रह पृ० ४९ गाथा ९ में ४७ ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का नाम उल्लेख है उनमें से ज्ञानावरण की ५ प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की ४ प्रकृतियों और अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ ये ध्रुव बन्धी प्रकृतियाँ दसवेंगुणस्थान में बन्धती हैं अतः इन १४ प्रकृतियों की अपेक्षा ध्रुवबन्ध कहा है, क्योंकि दसवेंगुणस्थान तक इन १४ प्रकृतियों का निरन्तर बंध होता रहता है । आवरण विग्ध सव्वे कसाय मिच्छत्त णिमिण वण्णचदु । गुरु तेयाम्मुवधायं धुवाउ सगदाणं ॥ ९ ॥ Jain Education International ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, अंतराय ५, कषाय १६, मिध्यात्व १, निर्माण १, वचतुष्क ४, भय १, जुगुप्सा १, अगुरुलघु १, तेजसशरीर १, कार्मणशरीर १, उपघात १, ये सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि बन्धयोग्य गुणस्थानों में इसका निरन्तर बन्ध होता है । - जै. ग. For Private & Personal Use Only 1 ./........ अनुभाग बन्ध मूल व उत्तर प्रकृतियों में होता है शंका- अनुभागबन्ध का लक्षण क्या है ? अनुभागबन्ध क्या मूलप्रकृतियों में ही होता है या उत्तरप्रकृतियों में भी होता है ? ***** समाधान-कर्मों के अपने कार्य उत्पन्न करने की शक्ति को अथवा फलदानशक्ति को अनुभाग कहते हैं । यह अनुभागबंध मूलप्रकृतियों में भी होता है और उत्तरकर्मप्रकृतियों में भी होता है । “को अणुभागो ? कम्माणं सगकज्ज करणसत्ती अणुभागो णाम । " ( जयधवल पु० ५ पृ० "अणुभागो णाम कम्माणं सगकज्जुप्पायण सत्ती ।" ( जयधवल पु० ९ पृ० २ ) www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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