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________________ ४२८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का अंतर पीत-पद्म लेश्या में नहीं होता शंका-महाबंध प्रथम पुस्तक में तीर्थङ्कर प्रकृति के बंध का अन्तर पीत, पपलेश्या में नहीं बताया, किन्तु शुक्ललेश्या में अन्तर बताया है। इसका क्या कारण है ? तीर्थंकरप्रकृति के बंधक देव के भले ही अन्तर न हो, परन्तु तीर्थकरप्रकृति के बंधकमनुष्य को तीनों ही शुभलेश्याओं के परस्पर परिवर्तन से अन्तर्मुहूर्त अन्तर प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा कोई समय नहीं है कि तीर्थंकर प्रकृतिबंधक को लेश्याओं में परिवर्तन न होता हो। साधारणतया मनुष्यों व तिर्यचों में लेश्या का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। यवि देवोंकी अपेक्षा ही कथन करना अभीष्ट हो तो शुक्ललेश्या में तीर्थकरप्रकृति के बंध का अन्तर नहीं बनता। यदि देवगति से निर्गमन की अपेक्षा शुक्ललेश्या में अन्तर कहा जावे तो वह नियम पीतपय लेश्या में भी होना चाहिये, क्योंकि देवगति से च्युत होनेवाला जीव अवश्य कापोतलेश्या को प्राप्त हो जाता है ऐसा नियम है। समाधान-तीथंकरप्रकृति निरंतर बंधप्रकृति है। इसके बंध का अन्तर दो अवस्था में पड़ता है। (१) तीर्थंकरप्रकृति का बंधक जीव जब उपशमश्रेणी चढ़ता है तो अपूर्वकरणगुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति की बंधन्युच्छित्ति हो जानेपर बंध का अन्तर प्रारंभ हो जाता है। गिरने पर पुनः बंध प्रारंभ हो जाता है। उपशमश्रेणी में शुक्ललेश्या होती है इस अपेक्षा से शुक्ललेश्या में तीर्थंकरप्रकृति के बंधका अन्तर कहा है। (२) जिसने दूसरे या तीसरे नरकका आयुबंध किया है ऐसा मनुष्य यदि क्षयोपशमसम्यग्दृष्टि हो तीर्थङ्करप्रकृति का बंध प्रारम्भ करता है तो उसके मरणसमय सम्यक्त्व छूट जाने से तीर्थङ्करप्रकृति का बंध भी नहीं होता। नरक में उत्पन्न हो पर्याप्त हो सम्यक्त्व को प्राप्तकर पुनः तीर्थंकरप्रकृति का बंध होने लगता है। इसप्रकार कापोतलेश्या में तीर्थकरप्रकृति के बंध का अन्तर होता है। __ देवगति से च्युत होनेवाला जीव अवश्य कापोतलेश्या को प्राप्त हो जाता हो ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिजीव के देवगति में जो लेश्या थी वही लेश्या मनुष्य में उत्पन्न होने के बाद एक अन्तर्मुहर्त तक बनी रहती है। यदि देव मिथ्यादृष्टि है तो स्वर्ग से च्युत होने पर ही नियम से अशुभ लेश्या हो जावेगी। -जं. सं. 31-7-58/V/ जि. कु. जैन, पानीपत तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ नरकगति से नहीं होता शंका-आगम में लिखा है कि तीसरे नरक से निकला हुआ जीव तीर्थकर हो सकता है। तो क्या वह जीव तीर्थकरप्रकृति का बंध तीसरे नरक में ही कर लेता है या वहां से निकलने के बाद मनुष्यभव में ? समाधान-तीर्थकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ मनुष्य ही केवली या श्रुतकेवली के निकट करता है ( गो.क. गाथा ९३)। जिसने पहिले नरकायु का बंध कर लिया है, ऐसा मनुष्य, सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थकरप्रकृति का बंधकर यदि दसरे या तीसरे नरक में उत्पन्न होता है तो उसके मिथ्यात्व में जाने के कारण एक अन्तमुहर्त तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक जाता है। दूसरे या तीसरे नरक में उत्पन्न होने पर एक अन्तर्मुहूतं पश्चात् सम्यग्दृष्टि होकर पूनः तीर्थङ्करप्रकृति का बंध करने लगता है। नरक से निकलकर मनुष्य होने पर भी निरन्तर तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता रहता है। आठवेंगुणस्थान में तीर्थंकरप्रकृति की बंधव्युच्छित्ति हो जाती है। दोनों मनुष्यभवों व नरकभव में तीर्थंकरप्रकृति का बंध होता है, किन्तु प्रारम्भ मनुष्यभव में होता है। कृष्णजी ने यहाँ पर तीर्थकरप्रकृतिका बंध कर लिया था, अब तीसरे नरक में तीर्थंकरप्रकृति का बंध हो रहा है। वहां से निकलकर तीर्थकर होंगे। -णे. सं. 19-3-59/V/ *. ला. नॅन, कुचामन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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