SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४२७ तीर्थकर प्रकृति का बन्ध शंका-किसी जीव ने तीर्थंकरप्रकृति का बंध कर लिया है तो उस जीव के जब तक तीर्थकरप्रकृति का उदय नहीं आया तब तक क्या तीर्थकर प्रकृति का आस्रव होता रहेगा ? या तीर्थकरप्रकृति का बन्ध होने के पश्चात् उसका बास्त्रव रुक जाता है ? समाधान-जिस जीव ने तीर्थकरप्रकृति का बन्ध कर लिया है उसके इस प्रकृति का निरन्तर बन्ध होता रहेगा। इसकी बन्धव्युच्छित्ति आठवें गुणस्थान में है। अतः वहाँ पर इसका बन्ध रुक जाता है। जिसको दूसरे या तीसरे नरक में उत्पन्न होना है उसके मरण समय अन्तम'हर्त के लिए मिथ्यात्वगणस्थान हो जाने व तीसरे नरक में उत्पन्न होने के समय एक अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वगुणस्थान रहने से तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व होते ही पुनः तीर्थकरप्रकृति का बन्ध होने लगता है। इसप्रकार अपूर्वकरणगुणस्थान में बन्धन्युच्छित्ति हो जाने पर या मिथ्यात्वकाल में तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध नहीं होता अन्यत्र निरन्तर बन्ध होता रहता है। -जं. सं. 4-10-56/VI/ क. दे. गया . माहारकमिश्र० योग में तीर्थंकरप्रकृति का बन्धकाल एक समय शंका-माहारकर्मियकाययोग में तीर्थकरप्रकृति का जघन्य बन्धकाल एकसमय किसप्रकार संभव है.? समाधान-तीर्थङ्कर नामकर्मप्रकृति निरंतर बन्धनेवाली प्रकृति है । कहा भी है सत्तेताल धुवाओ तित्थयराहार-आउचत्तारि। घउवणं पयडीओ बझंति निरंतरं सव्वा ।। ( ध० पु० ८ पृ० १६) संतालीस ध्र वप्रकृतियां, तीर्थङ्कर, प्राहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और चार आयु ये सब ५४ प्रकृतियां निरंतर बंधती हैं। 'परमत्थदो पुण एगसमयं बंधिदूण विदियसमए जिस्से बंधविरामो विस्सदि सा सांतर बन्धपयडी। जिस्से बन्धकालो जहण्णो वि अंतोमुत्तमेत्तो सा णिरंतरबंधपर्याड ति घेत्तन्वं ।' (धवल पु० ८ पृ० १००) एकसमय बन्धकर द्वितीयसमयमें जिस प्रकृति की बन्धविश्रान्ति देखी जाती है वह सान्तर-बन्धप्रकृति है । जिसका बन्धकाल जघन्य भी अन्तमहतं मात्र है वह निरंतर-बंधप्रकृति है। तीर्थकर निरंतर-बंधप्रकृति है, अतः तीर्थकरप्रकृति का जघन्य बन्धकाल भी अन्तर्मुहूर्त होना चाहिये, किन्तु महाबन्ध पु० १पृ० ५५ पर आहारकमिश्रकाययोग-मार्गणा में तीर्थंकरप्रकृति का जघन्य बंधकाल एकसमय कहा है (णवरि तित्थय. जह. एग. उक्क. अंतो.)। इसीप्रकार पृ० ४४४ पर कहा गया गया है। आहारकमिश्रकाययोग के काल में जब एकसमय शेष रहा तब तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध प्रारम्भ हुआ। एक समय आहारकमिश्रकाययोग में तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हुआ, दूसरे समय में तीर्थंकरप्रकृति का बंध तो होता रहा, किन्तु आहारकमिश्रकाययोग का काल समाप्त हो जाने के कारण पाहारकमिश्रकाययोग नहीं रहा, अन्य योग हो गया। इसप्रकार आहारकमिश्रकाययोग में तीर्थंकरप्रकृति का जघन्य बंधकाल एकसमय सम्भव है। -जं. ग. 1-4-74/VIII/ र. ला. जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy