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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार : "परभबिआउभ उवरिमद्विदिवम्बस्त्र ओकरुणाए हेट्ठा णिववणमवलंबणाकरणंणाम । एक्स्स ओकडुणसण्णा किष्ण कवा ? ण उवयाभावेण उदयावलिबाहिरे अणिवयमाणस्स ओकडुणाववएसविरोहावो ।” ( धवल पु० १० पृ० ३३० ) ४२२ ] अर्थ - परभव सम्बन्धी आयु की उपरिमस्थिति में स्थितद्रभ्य का अपकर्षण द्वारा नीचे पतन करना प्रवलम्बनकरण कहा जाता है। इसकी अपकर्षरण संज्ञा नहीं दी गई, क्योंकि परभविक आयु का उदय नहीं होने से इसका उदयावलि के बाहर [ तथा आबाधा के अन्दर ] पतन नहीं होता, इसलिये इसकी अपकर्षण संज्ञा करने का विरोध है । आशय यह है कि यह परभवसम्बन्धी आयुका अपकर्षण होने पर भी उसका पतन प्राबाधाकाल के भीतर न होकर भाबाधा से ऊपर स्थित स्थितिनिषेकों में ही होता है, इसीलिये अवलंबनकरण को अपकर्षण से भिन्न बतलाया है । यदि परभवआयुबंध के पश्चात् दूसरे किसी अपकर्ष में अधिक स्थितिवाली परभविकआयु का पुनः बंध हो तो परभविकनायु स्थिति का उत्कर्षण हो सकता है। बिना बंध के उत्कर्षरण नहीं हो सकता है, क्योंकि "बंधानुसारिणीए उक्कडगाए" उत्कर्षण बंघ का अनुसरण करने वाला होता है, ऐसा सूत्र वचन है । ( धबल पु० १० पृ० ४३ ) -जै. ग. 30-12-71 / VI / रो. ला. मित्तल आनतादिक देवों के मासपृथक्त्व प्रमाण श्रायुबन्ध शंका- धवल पुस्तक ९ पृ० ३०७ पर लिखा है-आनत०-प्राणत और आरण-अच्युत स्वर्ग के देवों में से की बांधकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । प्रश्न यह है कि शुक्ललेश्यावाला देव भी क्या इतनी अल्पमासपृथक्त्व आयु आयु का बंध कर सकता है ? समाधान- यह ठीक है कि श्रानतआदि स्वर्गो में शुक्ललेश्या होती है, किन्तु इन स्वर्गों में मिथ्यादृष्टिदेव भी होते हैं । इन स्वर्गों के मिध्यादृष्टिदेव संक्लेशपरिणामों से मासपृथक्त्व की आयु का बंध कर लेते हैं । " च आणव पाणद असंजब सम्माइट्टिणो मणुस्साउअस्स जहणट्ठिवि बंधमाणा वासपुधतावो हेट्ठा बंधति, महाबंध जहष्णद्विदि बंधद्धाद्येवे सम्माबिट्टीणमाउ अस्स वासपुधत्तमेत्त द्विविपरूवणावो । तवो आणव- पाणवमिच्छाइट्टिस्स मणुस्साउ अंगासपुधत्तमेत्तं बंधिय ।" ( धवल पु० ७ पृ० १९५ ) अर्थ - आनत - प्रारणत कल्पवासी असंयतसम्यग्डष्टिदेव जब मनुष्यायु को जघन्यस्थिति बाँधते हैं तब वे वर्षपृथक्त्व से कम की प्रायुस्थिति नहीं बाँधते, क्योंकि महाबंध में जघन्यस्थितिबंध के काल विभाग में सम्यग्दृष्टिजीवों की आयुस्थिति का प्रमाण वर्षपृथक्स्वमात्र प्ररूपित किया गया है । भ्रतः प्रानत-प्राणत कल्पवासी देवों के मासपृथक्त्वमात्र मनुष्यायु का बंध करता है । Jain Education International - ज. ग. 17-4-69/ VII / ट. ला. जैन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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