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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ४२१ समाधान-एकभव में प्रायुकर्म का बंध अधिक से अधिक आठ बार हो सकता है। श्री वीरसेन आचार्य ने धवल पु० १० पृ० २३३ पर कहा भी है "जे सोवक्कमाउआ ते सगसग जमाणाउ दिदीए वे तिभागे अदिक्कते परमवियाउवअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयदा ति । तत्थ आउअबंधपाओग्गकालम्भंतरे आउअबंधपाओग्गापरिणामेहि के वि जीवा अवारं के वि सत्तवारं के वि छग्वार के वि पंचवारं के वि चत्तारिवार के वि तिण्णिवारं के वि दो वारं के वि एक्कवारं परिण. मंति। ....... तिरुवक्कमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होति । तत्थ वि एवं चेव अट्ठागरिसाओ वत्तवाओ।" जो जीव सोपक्रमायुष्क हैं वे अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दो त्रिभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर असंक्षेपारा काल तक परभवसम्बन्धी आयु को बांधने के योग्य होते हैं। उनमें आयुबन्ध के योग्य-काल के भीतर कितने ही जीव पाठबार, कितने ही सातबार, कितने ही छहबार, कितने ही पांचबार, कितने ही चारबार, कितने ही तीनबार, कितने ही दोबार और कितने ही एकबार आयुबन्ध के योग्य परिणामों से परिणत होते हैं। जो निरुपक्रमायुष्क जीव होते हैं, वे अपनी भुज्यमानआयु में छहमाह शेष रहनेपर आयुबन्ध के योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ-अपकर्षों को कहना चाहिये। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चारों ही गतियों में आयुबन्ध अधिक से अधिक आठबार हो सकता है । -णे. ग. 10-2-72/VII/ कस्तूरचन्द परभविक प्रायु के उत्कर्षण-अपकर्षण विषय स्पष्टोकरण शंका-परभव सम्बन्धी बद्धआयु की उदीरणा नहीं हो सकती है। फिर उसकी स्थिति में उत्कर्षण व अपकर्षण किस प्रकार हो सकता है ? . समाधान - उदीरणा उस कर्म की होती है जिसका उदय होता है, क्योंकि अपक्व कर्मों को पकाने ( उदय में लाने ) का नाम उदीरणा है। कहा भी है "अपक्व पाचनमुबीरणा। (ध. पु. १५ पृ. ४३ ); जे कम्मक्खंधा महंतेसुटिदि अणुभागेसु अवटिवा ओक्कडिदूण फलदाइणो कीरंति, तेसिमुदीरणा ति सण्णा, अपक्वपाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात् ।" (ध० पु० ६ पृ० २१४ ) अर्थ-जो महान् स्थिति और अनुभागों में अवस्थित कर्म-स्कन्ध अपकर्षण करके फल देने वाले किये जाते हैं, उन कर्मों-स्कन्धों की 'उदीरणा' यह संज्ञा है, क्योंकि अपक्वकर्मस्कन्धों के पाचन करने को उदीरणा कहा गया है। वर्तमान में भुज्यमानायु का उदय है, परभविक बद्धआयु का उदय नहीं है, अतः परभवबद्धआयू के अपक्वकर्मस्कन्धों को उदय में नहीं लाया जा सकता है, अतः उसकी उदीरणा संभव नहीं है। परभव बद्धआयू के उपरिमस्थितिद्रव्य को अपकर्षण करके उदयावलि के बाहर पाबाधा के भीतर नहीं दिया जा सकता है किन्तु अवलम्बनाकरण के द्वारा उपरिस्थिति के निषकों का द्रव्य नीचे के निषेकों में दिया जा सकता है। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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