SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : आप सहश पूत्ररत्न को जन्म दिया। उल्लेखनीय तो यह है कि आपने अभीक्ष्णज्ञानोपयोगभावना को भाते हए पैतीस वर्षों में जो कुछ अजित किया उस बोध को अन्य तक पहुँचाने की आपकी तीव्र इच्छा थी। आप इतना तक कहते थे कि "मैंने स्वाध्याय से जो कुछ उपार्जित किया है वह किसी पिपासु-जिज्ञासु तक पहुँच जाय । अध्ययन काल में, मैं उस जिज्ञासू को अपने घर रखकर भोजन खिलाऊँ, कुछ मासिक भी दू; पर मेरा अजित बोध येन केन प्रकारेण अन्य तक पहुँच जाय, ऐसी मेरी भावना है ।" धन्य है, ऐसी पावन व अपूर्व ज्ञानदानभावना वाले हे पू० रतनचन्द ! आपको धन्य है। यापके उपदेशों का सार-संक्षेप इस प्रकार है-यों तो संसार में कई जन्म पाते हैं एवं इस मनुष्य व्यञ्जनपर्याय को छोड़ कर भी चले जाते हैं, परन्तु वास्तव में तो जन्म उसी ने लिया है कि जिसके जन्म लेने से वंश, समाज एवं धर्म समुन्नति को प्राप्त हो जाय। कहा भी है स जातो येन जातेन, याति वंशः समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे, मृतः को वा न जायते ॥ आपका विशिष्ट तौर से कहना था कि एक क्षणभर भी बिना स्वाध्याय के न बिताओ, प्रतिक्षण स्वाध्याय करते रहो; क्योंकि यह सर्वोत्कृष्ट तप है। स्वाध्याय प्रशस्त कर्मों के बन्ध व कर्मनिर्जरा का कारण है। आप कहते थे कि संसार में सारभुत कार्य है “स्व-पर विवेक"। जिसे स्व-आत्मरूप अमूल्य निधि का श्रद्धान न हुआ उसने शास्त्र पढ़कर ही क्या किया ? आपके प्रवचन थे कि "कुकर्म मत करो, परन्तु कुकर्म होने भी मत दो।" आत्मा तो अजर है, अमर है, शाश्वत है, नित्य है। अनाद्यनन्त इस चेतन आत्मा से शरीर तो त्रिकाल भिन्न (लक्षणों की अपेक्षा) है। नाशवान् शरीर से निर्मम होता हुआ यह चेतन ही चेतन को जानकर सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तथा मोक्षमार्ग प्राप्त करता है एवं संयमरूप चारित्र को दुर्लभ नरपर्याय में ग्रहण कर शाश्वतसुख प्राप्त करता है, जो कि आत्मा का अन्तिम कर्तव्य है । बस, यही नरभव का सार है। इस कथन को शब्दों में नहीं, भावों में समझना है और तद्रूप होना है। अन्यथा मनुष्य बने और नहीं बने, दोनों समान हैं। आपका कहना था कि जानना (सम्यग्ज्ञान) तभी सफल है जबकि आचरण में लाया जावे अर्थात् ज्ञान के अनुसार आचरण किया जाय । चारित्र के बिना दशपूर्वज्ञ सम्यग्दृष्टि को भी मोक्ष नहीं होता। पूर्ण चारित्र के बिना शान्ति का स्थान पञ्चमगति नहीं मिल सकती तथा सांसारिक सुख नगण्य हैं, क्षणिक हैं, हेय हैं, अनुपादेय हैं। अतः साक्षात् मोक्ष का कारणभत चारित्र यदि सर्वदेश न पाला जा सके तब भी एक देश तो पाला ही जाना चाहिये। जिसने आंशिक संयम ( देशव्रत ) भी न पाला उसका मनुष्यत्व पाना ही व्यर्थ है; क्योंकि मात्र सम्यग्दर्शन तो सर्वगतियों में सम्भव है। परिवार परिचय आपकी अर्धांगिनी श्रीमती माला ने दो पुत्रों और तीन पुत्रियों को जन्म दिया। छोटे पुत्र का अल्पायु में ही निधन हो गया। इसके निधन के कुछ समय बाद ही श्रीमती माला का भी देहावसान हो गया। अनन्तर सन १९३३ में 'सब्जमाला' जी से आपका दूसरा विवाह हुआ। इनसे आपको किसी सन्तान की प्राप्ति नहीं हई। अभी सब्जमालाजी की आयु ७१ वर्ष है। वात रोग एवं पाँवों में दर्द रहने के कारण आप रुग्ण ही रहती हैं। गुरुवर्यश्री के इकलौते पुत्र श्री पुरुषोत्तम कुमार जैन-जिनकी आयु इस समय ५६ वर्ष है-कलकत्ता में सविस करते हैं । आपके पौत्र भी एक ही है-श्री सुभाषचन्द्र । अभी वे ३८ वर्ष के हैं और देहरादून में रहते हैं। पुत्र व पौत्र दोनों के घर से काफी दूर रहने से घर का सारा भार गुरुवर्यश्री पर ही रहता था। गुरुवर्यश्री की तीन पुत्रियाँ-सूवर्णलता. कसमलता और हेमलता हैं; तीनों विवाहिता हैं। पुरा घराना नेकवृत्ति को लिये हुए है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy