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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ 8 धन्य हो ऐसे महान् अनुभवी, आत्मसंस्कारी, भावत्यागी प्राणी को; जो विकट परिस्थिति में भी आत्मसूख को ही महत्त्व देते थे तथा सत्य विचारों एवं पारलौकिक मार्ग से च्युत नहीं होते थे। साधुभक्ति आपकी साधुभक्ति अनुपम एवं सराहनीय थी। सहारनपुर में ही एक आर्यिका माताजी के समाधिमरण के काल में आपने निरन्तर निकट रहकर सेवा की एवं सुसमाधिमरण कराया। जब-जब भी सहारनपुर में मुनिसंघ आये, आपने प्रायः आहारदान आदि दिया। प्रतिवर्ष आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज के संघ में जाकर ज्ञानदान, आहारदान आदि देते थे। यदा-कदा अन्य साधूसंघों में भी जाकर यथाशक्ति साधुसेवा करते थे। वस्तुतः ज्ञानी तो साधुभक्त होता ही है, होना भी चाहिये। शंकाओं के समाधाता आपने सन् १९५४ से आयु के अन्त तक विभिन्न सैद्धान्तिक शंकाओं का समाधान जैन सन्देश व जैन-गजट के माध्यम से किया। प्रतिदिन विभिन्न स्थानों से आयी शङ्काओं को उसी दिन समाहित ( समाधान ) करके शंकाकार को तुरन्त उत्तर भेज देते थे। यद्यपि वर्तमान भव में आपने कोई विशेष अध्ययन नहीं किया था तथापि पूर्वभविक संस्कारों से इतना ज्ञान आपमें था कि जिससे मूल प्राकृत व संस्कृत भाषा में लिखित गूढ़ सिद्धान्तग्रन्थों में भी रही भूलों को आपने सुधारा। शङ्काएँ समाधान सहित इसी ग्रन्थ के शंकासमाधानाधिकार में निहित हैं जिससे आपके सुसमाधातृत्व की अभिव्यञ्जना स्वयं हो जायगी। काश ! आज वैसा कोई समाधाता होता। उपदेष्टा, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, प्रादर्श श्रावक आप उपदेश बहुत कम देते थे, पर जब भी देते थे तब मर्मभरा व जीवन को राह दिखाने वाला। आपके उपदेश विद्वानों की समझ में तो शीघ्र आ जाते थे; परन्तु अल्पज्ञ श्रावक उपदेशकाल में उठकर चले जाते थे। यतः विशिष्ट प्रशिलों का प्रवचन भी विद्वद्गम्य-सूक्ष्म ही हुआ करता है। आखिर कब तक स्थूल प्ररूपणा होती रहे? यह नरभव तो बार-बार मिलने का है नहीं। गुरुवर्यश्री विशिष्ट ज्ञानी होते हुए भी बहुत सेवाभावी थे एवं ठीक वैसे ही स्वयं के कार्य में अन्य के साहाय्य की अपेक्षा नहीं रखने वाले पुरुषार्थी भी। इतना ही नहीं, वे श्रावक के सकल नित्य-नियमों के पालन करने व कराने वाले आदर्श श्रावक थे। एक कवि ने आपकी प्रशस्ति में ठीक ही लिखा है ज्ञान ध्यान लवलीन है, लीन क्रिया आचार । सतत ग्रंथ भणतो रहे', रतनचन्द मुख्तार ॥१॥ स्वारथ त्यागी गजब है, गजब सुणो जिनभक्त । श्रावक सुपथ सन्दर्शक, रत्नत्रय अनुरक्त ॥२॥ साधु नो लघुनन्दन वो, अग्रज है नेमितणो । ज्ञानी नो गुरु मुख्य वो, रतन है कीमती घणो ॥३॥ पूज्य गुरुवर्यश्री भाषाज्ञान, शास्त्रज्ञान, अध्यापनकला एवं विनय गुण के धनी थे। इस युग के आप अद्वितीय अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी धर्मात्मा सत्पुरुष थे, इसमें शंका को अवकाश नहीं है। धन्य है आपके माता-पिता को जिन्होंने १. "ग्रन्थाध्ययन प्रवीण है" ऐसा भी ठीक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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