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________________ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : कतिपय पृच्छाएँ, कतिपय घटनाएँ पूज्य गुरुवर्यश्री से मैंने एक बार पूछा कि किन्हीं विद्वानों में तो अत्यधिक विद्वत्ता एवं उपकर्तृ-भाव के सद्भाव के बावजूद भी उनकी प्रसिद्धि नहीं देखी जाती है सो.......? उत्तर मिला-"भाई जवाहरलालजी ! प्रसिद्धि की चाह जीवन का नाश करने वाली है।" ये शब्द बड़े जोर से कहे । इन शब्दों को सुन कर मैंने अनुभव किया मानों उनके मुख से परम धर्मवाणी ही निकली हो। वास्तव में, विद्वान् यदि प्रसिद्धि के लिए सोचे-विचारे तो वह सच्चा विद्वान् ही नहीं; क्योंकि मोक्षमार्ग और तत्सम्बद्ध विद्वत्ता प्रसिद्धि को अनादेय ही बताते हैं । इस महान् आत्मा से मैंने एक बार पत्र द्वारा पूछा कि आपके माता-पिता का क्या नाम है ? तो आपने उत्तर लिखा-"जवाहरलाल ! चेतन के माता-पिता होते ही नहीं, ऐसा प्रवचनसार में साफ लिखा है। मैं पुद्गल को जन्म देने वाले पुद्गल का नाम याद रखना नहीं चाहता।" धन्य है इस निर्ममत्व को। एक बार मैंने पूछा कि गुरुजी करने योग्य क्या है ? उनका उत्तर था—आत्मा को पहिचानो, रागद्वेष का त्याग करो। यही नरजन्म का सार है, अन्य सभी बेकार है। आपका बारम्बार यही कहना था कि “यह मानुष परजाय सुकुल सुनिबो जिनवानी। इह विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी।" संसार एवं तत्कारणभूत रागद्वेष से बचकर रहो; यही जीवन का सार है। एक बार मैंने पूछा कि गुरुवर्यश्री! रागद्वेष को हम हेय जानते हैं, समझते हैं, चिन्तन भी करते हैं ( उनके हेयत्व का ) परन्तु छूटता नहीं है, है ? उत्तर मिला "भाई ! रागद्वेष कौन करता है ? यह तो पहले समझो। स्वनिधि की लहर जागे, पर से हटे, तो रागद्वेष छूटे ही छूटे ।” एक बार मैंने पूछा कि गुरुवर्य ! आपको इतना प्रगाढ़, विपुल व सूक्ष्म ज्ञान कैसे हो गया ? किसी गुरु के पास तो पढे नहीं। तो आपने सरल शब्दों में उत्तर दिया कि “मैं अध्ययन के साथ-साथ सदैव विद्वानों की सङ्गति करता आया हूँ। प्रतिवर्ष फाल्गुन मास में हस्तिनापुर में विद्वद्गोष्ठी हुआ करती थी। वहाँ अनेक विद्वान् वर्ष भर की अपनी-अपनी शङ्काएँ लाते थे तथा सभा में बैठ कर परस्पर सुनाते थे; जिससे एक ही शंका का अनेक विद्वानों द्वारा अपनी-अपनी शैली से समाधान हो जाता था। उसमें मैं भी प्रतिवर्ष भाग लिया करता था। साथ ही कई बार स्व० पूज्य वर्णीजी के पास ईसरी भी जाया करता था। इत्यादि कारणों से मैं थोड़ा समझ सका है।" ( इनके क्षयोपशम की उत्कृष्टता एवं विनयशीलता के कारण पूज्य वर्णीजी इनसे बहुत-बहुत प्रसन्न व प्रभावित थे।) जब आप वकालत करते थे तब भी दशलक्षण पर्व के दिनों में वकालत का कार्य बिलकुल नहीं करते थे तो अन्य साथियों-जैन वकील, पेशकार आदि को आश्चर्य होता था कि एक दिन न करे, दो दिन न करे, चार दिन न करे; परन्तु रतनचन्दजी तो दसों दिनों तक इस कार्य सम्बन्धी ( वकालत कार्य सम्बन्धी ) बात करने को भी तैयार नहीं होते, धन्य हो इन्हें । ये क्या करते हैं दस दिनों में, आखिर दिन-रात ? एक बार की बात है कि गुरुवर्यश्री (सहारनपुर) मन्दिरजी में पूजा करके बाहर निकलने के लिये सीढ़ियों से उतर रहे थे। उस समय कुछ श्वेताम्बर साधु उन्हें मिले और पूछने लगे-"क्या नाम है आपका ?" गुरुजी बोले, 'मुझे रतनचन्द कहते हैं।' उन्होंने पुनः पूछा कि क्या आपने धवल का स्वाध्याय किया है ? गुरुजी ने कहा, हाँ, क्यों नहीं? सम्यकतया किया है। तब उन्होंने कहा कि "तो फिर अब तो आपको भी स्त्री-मुक्ति को मान लेना पड़ेगा।" गुरुजी ने कहा, "दिगम्बर-सिद्धान्त-ग्रन्थों में ऐसा कहाँ लिखा है ? आप करणानुयोग के आधार पर बात कीजिये । करणानुयोग में हर बात नियम की है। हाँ, आपके भी कुछ ग्रन्थों में स्त्री-मुक्ति का निषेध है।" तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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