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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ५ २. श्री पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री 'कसायपाहुडसुत्त' का सम्पादन कर रहे थे । वे चूरिंगसूत्रों के अर्थ व विशेषार्थ जयधवला के आधार पर लिखते थे । एक स्थल पर जयधवल का प्रकरण उनकी समझ में नहीं श्राया तो वे सहारनपुर पधारे और गुरुवर्य श्री से कहने लगे कि जयधवल के इन तीन पृष्ठों का अर्थ लिख दो । गुरुवर्यश्री ने कहा कि "मैं संस्कृत व प्राकृत से अनभिज्ञ कैसे अर्थ करू ? यह मेरी बुद्धि से बाहर है ।" पण्डितजी ने कहा कि यह कार्य तो करना ही पड़ेगा । तब फिर पण्डितजी की आज्ञापालन हेतु गुरुजी ने अनुवादकार्य प्रारम्भ कर दिया । गुरुवर्य श्री को प्रकरण देखते ही ज्ञात हुआ कि लिपिकार से कुछ भाग छूट गया है तब गुरुजी के कहने पर पण्डितजी ने मूलबद्री पत्र लिखा कि ताड़पत्रीय प्रति से इसका मिलान कर सूचित करो कि यह प्रकरण ठीक है या कुछ भाग लिखने से रह गया है । तब पत्रानुसार मूलबद्री स्थित एक विद्वान् द्वारा वहाँ की प्रति से मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि लिपिकार से वस्तुतः कुछ अंश छूट गया था । तब पण्डित हीरालालजी ने स्वयं अर्थ कर लिया । यह है गुरुवर्य श्री की अनुपम विद्वत्ता का उदाहरण | अद्भुत गणितीय बुद्धि करणानुयोग का बहुभाग गरिणत से सम्बद्ध है । यही कारण है कि जो गणित का अच्छा विद्वान् हो वह त्रिलोकसार, धवलाटीका आदि में सुगमतया प्रवेश पा जाता है । धवला की तीसरी व दसवीं पुस्तक तथा त्रिलोकसार के चतुर्दशधारा आदि विषयक प्रकरण गरिणत से प्रोतप्रोत हैं । पूज्य गुरुवर्य श्री को गरिणत का अच्छा ज्ञान था । यही कारण है कि वे धवलादि के गणित सम्बन्धी प्रकरणों को शीघ्र समझ लेते थे । स्वयं गुरुवर्य श्री का कहना था कि 'अगणितज्ञ मस्तिष्क करणानुयोग नहीं समझ सकता ।' एक रोचक उदाहरण, जो कि उनके गणितज्ञान का व्यञ्जक है, नीचे प्रस्तुत करता हूँ सहारनपुर में श्री अनिलकुमार गुप्ता बी. एससी में पढ़ते थे । इनके सहपाठी श्री सुभाष जैन प्रतिदिन रात्रि को ७.३० बजे पू० गुरुजी के घर पर 'त्रिलोकसार' पढ़ने जाया करते थे । एक दिन श्री सुभाष जैन के साथ अनिलजी भी आये । घण्टे भर की नियमित स्वाध्याय के बाद श्री गुप्ता ने पूछा कि इस ग्रन्थ में क्या विशेषता है ? गुरुजी ने कहा – “ इसमें अलौकिक गणित है और जैन गरिणत का छोटे से छोटा प्रश्न भी आप हल नहीं कर सकते ।" श्री गुप्ता ने कहा- " तो कुछ पूछो, मैं अभी हल कर दूँ ।" गुरुजी ने पूछा कि "वह संख्या बताओ जिसमें यदि दस जोड़ दिये जावें तो पूर्ण वर्ग बन जावे तथा उस संख्या में से दस घटा दिये जावें तो शेष भी पूर्ण वर्ग संख्या रहे ।" इसको श्री गुप्ता वहाँ हल नहीं कर सके । एक सप्ताह बाद आकर उन्होंने गुरुजी से कहा कि मुझसे तो हल नहीं हुआ; मैं अपने प्रोफेसर साहब से हल करा लूँ । गुरुजी ने कहा, “ठीक है, उनसे हल करा लेना ।" एक माह पश्चात् आकर श्री गुप्ता ने कहा कि मेरे प्रोफेसर सा० ( गणित ) यह कहते हैं कि प्रश्न गलत है । गुरुजी बोले कि प्रश्न समीचीन है, वह संख्या '२६ ' है । २६ में १० जोड़ने पर ३६ यह पूर्णवर्ग संख्या बन जाती है तथा दस घटाने पर भी १६ ( अर्थात् २६ - १० = १६) यह पूर्ण वर्ग संख्या प्राप्त होती है । इस प्रकार गुरुजी को ही स्वयं अपने प्रश्न का उत्तर देना पड़ा। फिर गुरुजी ने कहा कि उत्तर तो हमने बता दिया है, अब आप इसकी विधि बता दो तो पाँच रुपये मिठाई खाने के लिये दूंगा । परन्तु विधि ज्ञात करने में भी श्री गुप्ता व उनके प्रोफेसर सा० असफल रहे और गुरुजी से प्रभावित होकर उनसे जैन शास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया । तत्त्वार्थसूत्र मौखिक याद कर लिया । प्रतिदिन जिनपूजा करने लगे तथा पिण्डदानादि अशुद्ध अजैन प्रथाएँ भी त्याग दीं। तब से आज तक श्री गुप्ताजी की जैनत्व के प्रति अटूट श्रद्धा है । अभी श्री गुप्ताजी दिल्ली में इञ्जीनियर हैं तथा श्राज भी श्रावकोचित कर्त्तव्यों में संलग्न हैं । यह है पूज्य गुरुजी के गणितज्ञान की दर्शिका घटना । वास्तव में, गुरुवर्य को गरिणत, सिद्धान्त, अध्यात्म आदि नाना विषयों का गहन ज्ञान था, इसमें शंका निरवकाश है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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